नामचीन कवियों व शायरों ने दागदार सियासत पर कसे तंज
दागदार सियासत को आइना दिखाते इन कलमकारों ने वोटरों को सियासतदां के चाल-चरित्र से आगाह किया।
By Taruna TayalEdited By: Published: Sat, 16 Mar 2019 05:34 PM (IST)Updated: Sat, 16 Mar 2019 05:34 PM (IST)
मेरठ, जेएनएन। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जीने से उतर रहे थे। यकायक वह सीढ़ी पर लड़खड़ा गए। पीछे उतर रहे महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें लपककर पकड़ लिया। नेहरू ने कहा, मुङो गिरने से बचा लिया दिनकर जी। महाकवि ने व्यंग्य कसा कि पंडित जी, यह कोई नई बात नहीं है। जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य ही उसे संभालता है। इस वाकये के मद्देनजर फिलवक्त हालात एकदम उलट हैं। अब तो राजनीति वाकई लड़खड़ा रही है। देश का चुनावी मंजर इस बात की मजबूत गवाही दे रहा है। तमाम नेता झूठ-प्रपंच और कभी पूरे न होने वाले वादों का पिटारा लेकर जनता के बीच आ चुके हैं। ऐसे में साहित्यकारों पर बड़ी जिम्मेदार आयद हो जाती है। इस मुद्दे पर कवियों, शायरों और अदीबों को टटोला तो उन्होंने नेताओं को खबरदार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इस बातचीत को एक सूत्र में पिरो रहे हैं राजन शर्मा..
कब तक मेरी प्यास को यूं बहलाएगा
अदबी दूत प्रोफेसर वसीम बरेलवी की शायरी गुल ओ बुलबुल और जाम ओ मीना के इर्द-गिर्द नहीं घूमती। सिर पर सादगी का दुपट्टा ओढ़े उनका शेर चुनावी उम्मीदवार से शिकवा भी बड़े सलीके से करता है कि-
कब तक मेरी प्यास को यूं बहलाएगा,
साफ बता कब घर-घर सावन आएगा।
हर चुनाव में नेताओं द्वारा छले जाने के दर्द को उन्होंने शब्दों में ढाला कि-
वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से,
मैं एतबार न करता तो और क्या करता।
मैं कितनी बार लुटा हूं हिसाब तो दे
ताजदारे गजल डा. राहत इंदौरी शायरी के कैनवास पर जलते मौसम को उकेरते हैं तो उसमें भी फूलों की खुशबू का अहसास होता है, लेकिन सियासत का जिक्र आते ही वह तिलमिला उठते हैं। वोट मांग रहे नेताओं से वो सवाल करते हैं कि-
जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे,
मैं कितनी बार लुटा हूं हिसाब तो दे।
राहत लगे हाथ मतदाताओं को जागरूक भी करते हैं। उन्होंने सलाह दी कि वोट डालने से पहले उम्मीदवार के किरदार को जानना जरूरी है।
किस्मत संवारनी हो जो हिंदुस्तान की,
तारीख पहले जानिए हर एक निशान की।
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं
ओज के सशक्त हस्ताक्षर डा. हरिओम पंवार अत्याचार और भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ हुंकार भरते हैं। उनके रचना संसार में प्यार, चांदनी, कजरा और सावन की कोई गुंजाइश नहीं है। पंवार कहते भी हैं कि-
मैं भी गीत सुना सकता हूं शबनम के अभिनंदन के,
मैं भी ताज पहन सकता हूं नंदन वन के चंदन के
लेकिन जब तक पगडंडी से संसद तक कोलाहल है
तब तक केवल गीत पढूंगा जन-गण-मन के क्रंदन के।।
जुनून इस कदर कि वो खुद व कवि समाज पर सवाल खड़ा करने से भी नहीं चूकते-
उस कवि का मर जाना ही अच्छा है जो खुद्दार नहीं,
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं।
प्यासी आंख उठाए होंगे
नामचीन कवि राजेंद्र राजन के काव्य में संयोग और वियोग रस का प्रतिबिंब झलकता है। चुनावी सीन को भी उन्होंने अपनी रचना में इस तरह समेटा है कि-
फिर वही चौराहे होंगे,
प्यासी आंख उठाए होंगे
सपनों भीगी रातें होंगी
मीठी-मीठी बातें होंगी
मालाएं पहनानी होंगी
फिर ताली बजवानी होंगी
दिन को रात कहा जाएगा
दो को सात कहा जाएगा।
नए अरमान लेकर कुछ भिखारी आने वाले हैं
उर्दू अदब के चमकदार नाम अशोक साहिल की शायरी का कैनवास इंसानी जिंदगी की अंदरूनी घुटन, सामाजिक समस्या और उलझनों की बेहतरीन अक्काशी है। चुनाव आते ही उनके अंदर का शायर जाग गया। इस शेर के जरिए वो वोटरों को आगाह करते हैं कि-
नए अरमान लेकर कुछ भिखारी आने वाले हैं,
तुम्हारे शहर में अब फिर मदारी आने वाले हैं
तुम्हे इस बार उन बहरूपियों से बचके रहना है
बदलकर भेष कुछ दिन में शिकारी आने वाले हैं।
मुझे इज्जत की परवाह है न मैं जिल्लत से डरता हूं
सियासत के गिरते मयार को कहकहों में ढालने का हुनर मजाहिया शायर सिकंदर हयात गड़बड़ को बखूबी आता है। उन्होंने नेता के किरदार सरेआम किया कि-
मुझे इज्जत की परवाह है न मैं जिल्लत से डरता हूं,
अगर हो बात दौलत की तो हर हद से गुजरता हूं
मैं नेता हूं मुङो इस बात की है तरबियत हासिल
मैं जिस थाली में खाता हूं उसी में छेद करता हूं।
दुश्मन से कोई बात न पैगाम चाहिए
कवयित्री डा. सीता सागर प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रचती हैं, लेकिन देश में पाकपरस्त आतंकी घटनाओं को लेकर आजकल उनका कंठ श्रंगार के बजाए अंगार उगल रहा है। वो क्रोधित स्वर में नेताओं से वचन लेती हैं कि-
दुश्मन से कोई बात न पैगाम चाहिए, अब एक ही निदान सुबहो शाम चाहिए
दिल में धधक रही हैं लाडलों की चिताएं इस बार काम पाक का तमाम चाहिए।
कब तक मेरी प्यास को यूं बहलाएगा
अदबी दूत प्रोफेसर वसीम बरेलवी की शायरी गुल ओ बुलबुल और जाम ओ मीना के इर्द-गिर्द नहीं घूमती। सिर पर सादगी का दुपट्टा ओढ़े उनका शेर चुनावी उम्मीदवार से शिकवा भी बड़े सलीके से करता है कि-
कब तक मेरी प्यास को यूं बहलाएगा,
साफ बता कब घर-घर सावन आएगा।
हर चुनाव में नेताओं द्वारा छले जाने के दर्द को उन्होंने शब्दों में ढाला कि-
वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से,
मैं एतबार न करता तो और क्या करता।
मैं कितनी बार लुटा हूं हिसाब तो दे
ताजदारे गजल डा. राहत इंदौरी शायरी के कैनवास पर जलते मौसम को उकेरते हैं तो उसमें भी फूलों की खुशबू का अहसास होता है, लेकिन सियासत का जिक्र आते ही वह तिलमिला उठते हैं। वोट मांग रहे नेताओं से वो सवाल करते हैं कि-
जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे,
मैं कितनी बार लुटा हूं हिसाब तो दे।
राहत लगे हाथ मतदाताओं को जागरूक भी करते हैं। उन्होंने सलाह दी कि वोट डालने से पहले उम्मीदवार के किरदार को जानना जरूरी है।
किस्मत संवारनी हो जो हिंदुस्तान की,
तारीख पहले जानिए हर एक निशान की।
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं
ओज के सशक्त हस्ताक्षर डा. हरिओम पंवार अत्याचार और भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ हुंकार भरते हैं। उनके रचना संसार में प्यार, चांदनी, कजरा और सावन की कोई गुंजाइश नहीं है। पंवार कहते भी हैं कि-
मैं भी गीत सुना सकता हूं शबनम के अभिनंदन के,
मैं भी ताज पहन सकता हूं नंदन वन के चंदन के
लेकिन जब तक पगडंडी से संसद तक कोलाहल है
तब तक केवल गीत पढूंगा जन-गण-मन के क्रंदन के।।
जुनून इस कदर कि वो खुद व कवि समाज पर सवाल खड़ा करने से भी नहीं चूकते-
उस कवि का मर जाना ही अच्छा है जो खुद्दार नहीं,
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं।
प्यासी आंख उठाए होंगे
नामचीन कवि राजेंद्र राजन के काव्य में संयोग और वियोग रस का प्रतिबिंब झलकता है। चुनावी सीन को भी उन्होंने अपनी रचना में इस तरह समेटा है कि-
फिर वही चौराहे होंगे,
प्यासी आंख उठाए होंगे
सपनों भीगी रातें होंगी
मीठी-मीठी बातें होंगी
मालाएं पहनानी होंगी
फिर ताली बजवानी होंगी
दिन को रात कहा जाएगा
दो को सात कहा जाएगा।
नए अरमान लेकर कुछ भिखारी आने वाले हैं
उर्दू अदब के चमकदार नाम अशोक साहिल की शायरी का कैनवास इंसानी जिंदगी की अंदरूनी घुटन, सामाजिक समस्या और उलझनों की बेहतरीन अक्काशी है। चुनाव आते ही उनके अंदर का शायर जाग गया। इस शेर के जरिए वो वोटरों को आगाह करते हैं कि-
नए अरमान लेकर कुछ भिखारी आने वाले हैं,
तुम्हारे शहर में अब फिर मदारी आने वाले हैं
तुम्हे इस बार उन बहरूपियों से बचके रहना है
बदलकर भेष कुछ दिन में शिकारी आने वाले हैं।
मुझे इज्जत की परवाह है न मैं जिल्लत से डरता हूं
सियासत के गिरते मयार को कहकहों में ढालने का हुनर मजाहिया शायर सिकंदर हयात गड़बड़ को बखूबी आता है। उन्होंने नेता के किरदार सरेआम किया कि-
मुझे इज्जत की परवाह है न मैं जिल्लत से डरता हूं,
अगर हो बात दौलत की तो हर हद से गुजरता हूं
मैं नेता हूं मुङो इस बात की है तरबियत हासिल
मैं जिस थाली में खाता हूं उसी में छेद करता हूं।
दुश्मन से कोई बात न पैगाम चाहिए
कवयित्री डा. सीता सागर प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रचती हैं, लेकिन देश में पाकपरस्त आतंकी घटनाओं को लेकर आजकल उनका कंठ श्रंगार के बजाए अंगार उगल रहा है। वो क्रोधित स्वर में नेताओं से वचन लेती हैं कि-
दुश्मन से कोई बात न पैगाम चाहिए, अब एक ही निदान सुबहो शाम चाहिए
दिल में धधक रही हैं लाडलों की चिताएं इस बार काम पाक का तमाम चाहिए।
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