जवाबदेही की हो रही मौत और चिकित्सा परिसर में चलता रहा मौतों का सिलसिला Meerut News
कोरोना के दौर में प्राइवेट अस्पतालों में सन्नाटा है। वहां मरीज नहीं जाता। अगर पहुंच गया तो नियमों का प्रवचन सुनते ही चक्कर आ जाते हैं।
मेरठ, [संतोष शुक्ल]। कोरोना की महामारी में मरीज नहीं, व्यवस्था की जवाबदेही ने भी दम तोड़ा है। चिकित्सा परिसर में मौतों का सिलसिला चलता रहा। वार्ड में शव दो से तीन दिनों तक पड़े रहे। भर्ती मरीजों के चिल्लाने और वीडियो वायरल होने के बाद जब तक सिस्टम जागा, बहुत देर हो चुकी थी। लखनऊ की टीम ने मेडिकल कॉलेज की नब्ज को टटोला तो पता चला यहां बीमारियां अलग तरह की हैं। राजनीतिक वायरस सिस्टम की नसों में तैरता मिला। मेडिकल प्राचार्य के खिलाफ राजनीतिक घेरेबंदी में कैंपस के डॉक्टर और स्वास्थ्य विभाग भी शामिल हुआ। उधर, वार्ड में मरीज मरते रहे और सिस्टम संवेदनहीनता की चादर ओढ़कर सोता रहा। मरीजों का दर्द सुनकर प्रदेश सरकार तक पिघल गई। यहां सब पीछा छुड़ाते नजर आए। लखनऊ की टीम ने मान लिया कि कोरोना से बड़ा संक्रमण अधिकारियों की सोच में पनप चुका है ..और, इसकी कोई वैक्सीन भी नहीं।
प्राचार्य बदलने से क्या
मेडिकल कॉलेज में कोरोना वार्ड बड़ी उम्मीदों के साथ शुरू किया गया था। कोई दो राय नहीं कि आगाज बहुत अच्छा था। पहली बैच में भर्ती मरीजों ने डिस्चार्ज होने के दौरान चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ की जमकर तारीफ की थी। मौतों का सिलसिला थमा हुआ था तो डॉक्टरों के साथ ही प्राचार्य भी इत्मीनान में आ गए। उधर, ड्यूटी पर आई नई टीमों ने धीरे-धीरे मरीजों से दूरी बनानी शुरू की। नतीजा ये रहा कि न सिर्फ मरीजों की मौतों का आंकड़ा बढ़ा, बल्कि उनका आक्रोश भी उफन गया। युवा भाजपा कार्यकर्ता की मौत ने शहर को झकझोर दिया। शासन ने प्राचार्य को बदल दिया। विकल्प के रूप में ऐसा नाम पेश किया, जिस पर अब मेडिकल में ही आम सहमति नहीं। उन्हें देखकर अब पुराने प्राचार्य को बहाल करने की मांग तेज हुई है। दो राय नहीं कि वो सक्रिय थे और संवेदनशील भी।
पलायन के गहरे घाव
भूख ही उन्हें खींचकर शहरों तक लाई थी, यही दर्द अब उन्हें गांवों की ओर धकेल रहा है। सड़कों पर दिखता यह मंजर दिल दहला देने वाला है। रेलवे स्टशन पर श्रमिकों को ले जाने वाली ट्रेनें फिर से दौड़ने के लिए तैयार हैं। पहले ट्रेनों में यात्र करने वालों के चेहरों पर सफर का संतोष नजर आता था। अपनों के बीच पहुंचने और फिर वक्त पर लौट आने का सुकून था। लोग ट्रेनों तक एक-दूसरे को छोड़ने जाते थे किंतु इन ट्रेनों की आवाजों में एक खौफ भरी खामोशी है। स्टेशन पर गर्मजोशी नदारद है। ट्रेनों पर चढ़ने वालों के चेहरों पर सुकून से ज्यादा खौफ है। एक महामारी ने सफर को दिशाहीन बना दिया है। अपने प्रदेशों में उतरेंगे तो वहां का मंजर कैसा होगा, यह सोचकर मन सशंकित है। कोरोना की परछाई हर जगह लंबी है। इस दर्द का अंत कहां।
डॉक्टर साहब आपका मरीज
कोरोना के दौर में प्राइवेट अस्पतालों में सन्नाटा है। वहां मरीज नहीं जाता। अगर पहुंच गया तो नियमों का प्रवचन सुनते ही चक्कर आ जाते हैं। अस्थमा, हार्ट, कैंसर, टीबी, गुर्दा, पेट एवं अन्य बीमारियों से जूझने वालों के लिए सबसे बड़े संकट का दौर है। उन्हें इलाज कहां मिले। हर मरीज की कोरोना जांच संभव नहीं। आइएमए और शासन के बीच तीन बार बैठक हो चुकी। कहा गया कि पीपीई किट पहनकर निजी डॉक्टर इमरजेंसी में मरीज देख सकेंगे। अगर मरीज पॉजिटिव आया तो डॉक्टर पर कोई आंच नहीं आएगी किंतु यहां कुछ उलझा हुआ है। प्राइवेट डॉक्टर सिस्टम से चिढ़ा हुआ है और यह सिस्टम प्राइवेट डॉक्टरों से। गर्भवती महिलाओं को लेकर लोग इस अस्पताल से उस अपताल तक भटक रहे हैं। कोरोना के डर से कोई हाथ नहीं लगा रहा। कोई भी गाइडलाइन साफ नहीं है। निजी डॉक्टर भी कोई रिस्क नहीं ले रहे हैं।