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'रंगपासी' की साक्षी मोरीपाड़ा की होलिका

उल्लास उत्साह उमंग और गौरव से ओतप्रोत सनातन संस्कृति की परंपराओं की विविधताएं भी उसके आनंद को अलग -अलग रूप में महसूस कराती रही हैं। होली सबसे प्रमुख त्योहारों में है लेकिन जिस तरह से कोस-कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी कहावत विविधता की बात बताती है उसी तरह त्योहारों को मनाने के तरीके में भी बदलाव दिखता है।

By JagranEdited By: Published: Sun, 08 Mar 2020 09:00 AM (IST)Updated: Sun, 08 Mar 2020 09:00 AM (IST)
'रंगपासी' की साक्षी मोरीपाड़ा की होलिका
'रंगपासी' की साक्षी मोरीपाड़ा की होलिका

मेरठ, जेएनएन। उल्लास, उत्साह, उमंग और गौरव से ओतप्रोत सनातन संस्कृति की परंपराओं की विविधताएं भी उसके आनंद को अलग -अलग रूप में महसूस कराती रही हैं। होली सबसे प्रमुख त्योहारों में है, लेकिन जिस तरह से 'कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी' कहावत विविधता की बात बताती है, उसी तरह त्योहारों को मनाने के तरीके में भी बदलाव दिखता है। मोरीपाड़ा शहर की सबसे पुरानी जगह है, तो वहां स्थित शुक्लो चौक पर मनाई जाने वाली होली भी उतनी ही पुरानी। यह सिर्फ पुरानी ही नहीं है, बल्कि होली मनाने का तरीका भी अद्भुत है।

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चौक स्थित हरिद्वारेश्वर मंदिर की फर्श व सीढि़यां इस तरह हैं जो एक मंच की तरह दिखती हैं। यहां वर्षो पहले होली के कई दिन पूर्व से नाटक का मंचन शुरू होता था। समय के साथ नाटक का मंचन तो बंद हो गया, लेकिन मंदिर के सामने स्थित होलिका चौक पर होली अभी भी उन्हीं परंपराओं के साथ मनाई जाती है।

रंगपासी की परंपरा संभवत:

यहीं होती है

शुक्लो चौक यूं तो ब्राह्माण बहुलता की वजह से नाम पड़ा था मगर होली की परंपराओं का विधिवत निर्वहन दिनेश सक्सेना के परिवार में होता है। दिनेश बताते हैं कि उनके यहां त्रयोदशी के दिन एक विशेष परंपरा निभाई जाती है जिसे रंगपासी बोलते हैं। इसके तहत कटोरे में पानी भरकर उसे गरम छुरे से काटा जाता है। काटने के बाद सभी लोग उसे थोड़ा थोड़ा पीते हैं। इसमें आस-पड़ोस के लोग व रिश्तेदार भी शामिल होते हैं। इसे मोहल्ले में भी बांटा जाता है। इसके पीछे का तर्क यह है कि होली के दिन अगर कोई संक्रमण होने वाला हो तो पहले से ही उसका बचाव कर लिया जाए। इसके बाद लक्ष्मी-गणेश, श्रीकृष्ण के कान्हा स्वरूप को गुलाल लगाया जाता है। पकवान का प्रसाद चढ़ाया जाता है। फिर बड़ों को रंग लगाकर आशीर्वाद लिया जाता है। इसी के बाद से होली का शुभारंभ मान लिया जाता है। इसके बाद महिलाओं का गीत-संगीत शुरू होता है। रात तक यह उल्लास चलता है, जिसके बाद आता है होलिका दहन का दिन। महिलाओं के पूजन के बाद होलिका दहन पुरोहित कराते हैं।

हर घर के अंदर होती है

महिलाओं की होलिका

यहां की खास बात यह कि महिलाओं के लिए होलिका हर घर में अलग से बनाई जाती है। मोहल्ले की बुजुर्ग विजयलक्ष्मी बताती हैं कि मुख्य होलिका के दहन के बाद यहां से आग लेकर पुरुष अपने-अपने घर लौटते हैं और घरो में महिलाओं के लिए तैयार की गई छोटी होलिका का दहन होता है। इसके बाद महिलाएं अपनी होलिका के पास गीत शुरू करती हैं तो पुरुष मुख्य होलिका स्थल पहुंच जाते हैं। यहां ढोल, मजीरे पर रातभर लोग गीत गाते हैं। कैलाशो देवी कहती हैं, यहां महिला और पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं है। सभी का सम्मान है, एक पुरानी परंपरा का पालन किया जाता है बस। बाकी सभी को समान रूप देने के लिए ही यहां के मंदिर में अ‌र्द्धनारीश्वर मूर्ति की पूजा की जाती है।

कड़ाही में रंग तैयार कर

मोहल्ले में बांटा जाता है

होलिका स्थल पर रात में बड़े आकार की कड़ाही भट्ठी पर चढ़ा दी जाती है। उमेश जोशी बताते हैं कि इसमें पानी में गेसू के फूल और चंदन डालकर प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। फिर इसे अनुपात में पूरे मोहल्ले में बांट दिया जाता है।

जैसा स्वांग वैसी उमंग

सुबह छह बजे से होली शुरू हो जाती है। पुरुष तरह-तरह के स्वांग करते हैं। अलग-अलग वेषभूषा में आते हैं। सुनील शर्मा का कहना है कि छोटे से लेकर बड़ों तक को कुछ भी रूप रखने और कैसे भी नृत्य की छूट होती है। इसका मकसद लोगों को मानसिक तनाव से दूर रखकर उनके आनंद को अंदर से महसूस करने का मौका देना है।


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