स्वतंत्रता के सारथी : ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बने काई से दौड़ेगी कार, फिसलेगा प्रदूषण
सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि के प्रयासों से देश में काई से ईंधन बनाने के लिए मसौदा अब नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय को सौंपा गया है।
By Prem BhattEdited By: Published: Sat, 10 Aug 2019 11:32 AM (IST)Updated: Sat, 10 Aug 2019 10:37 PM (IST)
मेरठ, [ओम बाजपेयी]। धरती से खनिज तेल का भंडार खाली हो रहा और पेट्रो पदार्थों की कीमतें आसमान छूती जा रहीं। इसके चलते संपूर्ण विश्व गैर पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोतों की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। ऐसे में जैव ईंधन के रूप में शैवाल (काई) ऊर्जा के एक प्रमुख स्त्रोत के रूप में सामने आया है। सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिक विभाग के पूर्व डीन सुबोध भटनागर ने शैवाल की ऐसी चार प्रजातियां खोजी हैं जिनमें बायोडीजल में कनवर्ट होने वाला ट्राई ग्लीसैराइड्स (जैव वसा) अन्य सामान्य प्रजातियों की तुलना में काफी ज्यादा है। उन्होंने आयरलैंड में वैज्ञानिक डा. स्टीफेन क्रान और ग्रोडीजल क्लाइमेट केयर काउंसिल के साथ मिलकर वसा युक्त शैवालों के औद्योगिक उत्पादन पर कार्य किया है। देश में काई से ईंधन बनाने के लिए मसौदा अब नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय को सौंपा गया है।
खोजीं यह प्रजातियां
डा. भटनागर के अनुसार समुद्र, नदियों और तालाबों से 28 प्रजातियों के सैंपल लिए गए थे। इनमें चार प्रजातियां ऐसी पाई गईं जिनमें वसा का प्रतिशत काफी ज्यादा था। सामान्य निम्न स्तरीय प्रजातियों के एक हेक्टेयर उत्पादन से 58,700 लीटर जैव ईंधन बनाया जा सकता है जबकि इन चार विशिष्ट प्रजातियों से 1,36,900 लीटर ईंधन का उत्पादन हो सकता है।
इस तरह बनता है जैव ईंधन
शैवालों की कटाई करने के बाद उन्हें माइक्रो स्क्रीनिंग द्वारा उपयोगी प्रजातियों के रूप में पहचाना जाता है। उच्च वसायुक्त प्रजातियों को छानकर अलग कर लेते हैं। शीतल तापमान पर इनको जलविहीन कर बायोमास प्राप्त करते हैं। बायोमास में पाए जाने वाले ट्राई ग्लिसैराइड्स के मेथेनॉल के साथ मिलने पर ट्रांसएस्ट्रीफिकेशन या एल्कोहलाइसिस के द्वारा बायोडीजल तथा ग्लीसैराल बनता है।
..इसलिए कारगर है काई
तालाबों और पोखरों में बिना किसी प्रयास के उगने वाले शैवाल को जैव प्रोद्यौगिक की भाषा में पादप जैव फैक्टरी कहा जाता है। खास यह कि इसे उगाने के लिए जैट्रोफा, सोयाबीन की तरह भूमि की जरूरत नहीं होती। यह नगर निगम के सीवरेज सिस्टम के पानी में भी उगाया जा सकता है। यह दूषित पानी को साफ करने में भी सक्षम है।
इनका कहना है
जैव प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि वसा उत्पादक शैवालों की प्रकाश की उपस्थिति में भोजन बनाने की प्रक्रिया को जीन परिवर्तन के द्वारा और बढ़ाया जा सके।
- डा. सुबोध भटनागर, पूर्व डीन, सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, मेरठ
शैवाल की प्रजातियों का नाम वसा का प्रतिशत
बैटियो कोकस ब्राउनियाई 25 से 75
क्लौरैला 28 से 32
नैनो क्लोराप्सिस 31 से 68
निटजशिया 45 से 47
खोजीं यह प्रजातियां
डा. भटनागर के अनुसार समुद्र, नदियों और तालाबों से 28 प्रजातियों के सैंपल लिए गए थे। इनमें चार प्रजातियां ऐसी पाई गईं जिनमें वसा का प्रतिशत काफी ज्यादा था। सामान्य निम्न स्तरीय प्रजातियों के एक हेक्टेयर उत्पादन से 58,700 लीटर जैव ईंधन बनाया जा सकता है जबकि इन चार विशिष्ट प्रजातियों से 1,36,900 लीटर ईंधन का उत्पादन हो सकता है।
इस तरह बनता है जैव ईंधन
शैवालों की कटाई करने के बाद उन्हें माइक्रो स्क्रीनिंग द्वारा उपयोगी प्रजातियों के रूप में पहचाना जाता है। उच्च वसायुक्त प्रजातियों को छानकर अलग कर लेते हैं। शीतल तापमान पर इनको जलविहीन कर बायोमास प्राप्त करते हैं। बायोमास में पाए जाने वाले ट्राई ग्लिसैराइड्स के मेथेनॉल के साथ मिलने पर ट्रांसएस्ट्रीफिकेशन या एल्कोहलाइसिस के द्वारा बायोडीजल तथा ग्लीसैराल बनता है।
..इसलिए कारगर है काई
तालाबों और पोखरों में बिना किसी प्रयास के उगने वाले शैवाल को जैव प्रोद्यौगिक की भाषा में पादप जैव फैक्टरी कहा जाता है। खास यह कि इसे उगाने के लिए जैट्रोफा, सोयाबीन की तरह भूमि की जरूरत नहीं होती। यह नगर निगम के सीवरेज सिस्टम के पानी में भी उगाया जा सकता है। यह दूषित पानी को साफ करने में भी सक्षम है।
इनका कहना है
जैव प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि वसा उत्पादक शैवालों की प्रकाश की उपस्थिति में भोजन बनाने की प्रक्रिया को जीन परिवर्तन के द्वारा और बढ़ाया जा सके।
- डा. सुबोध भटनागर, पूर्व डीन, सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, मेरठ
शैवाल की प्रजातियों का नाम वसा का प्रतिशत
बैटियो कोकस ब्राउनियाई 25 से 75
क्लौरैला 28 से 32
नैनो क्लोराप्सिस 31 से 68
निटजशिया 45 से 47
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