आत्म बलिदान का साहस दिखा भाई धरम सिंह बन गए थे गुरु गोविंद सिंह के प्यारे
गुरु गोबिंद सिंह ने ही 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानि खालिस (शुद्ध) जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो।
मेरठ (रवि प्रकाश तिवारी)। वैशाखी के मौके पर ही गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की नींव रखी थी। जब सिखों के दसवें गुरु को अपने खास लोगों के चयन की बारी आई तो इस मौके पर भी मेरठ ने आगे बढ़कर उनके मापदंडों को पूरा किया। मेरठ में हस्तिनापुर के निकट सैफपुर करमचंदपुर गांव के भाई धरम सिंह गुरु गोविंद सिंह की एक आवाज पर आगे बढ़े और एक भरी सभा में त्याग और बलिदान का साहस दिखाकर उनके प्यारे बन गए। भाई धरम सिंह की तरह ही एक-एक कर पांच अनुयायी साथ आए और फिर यहीं पंज प्यारे कहलाए। इस तरह मेरठ की धरती का एक लाल सिखों के खालसा पंथ की स्थापना का न सिर्फ गवाह बना बल्कि इसे आगे बढ़ाने का काम किया। आइए वैशाखी के मौके पर खालसा पंथ, पंज प्यारे और इसमें मेरठ के योगदान से जुड़े इतिहास के पन्ने पलटते हैं.. हस्तिनापुर से हम आगे बढ़ें तो लगभग 2.5 किमी. की दूरी पर एक गांव पड़ता है सैफपुर करमचंदपुर। इस गांव में एक गुरुद्वारा है, जो आज सिख धर्म के अनुयायियों के लिए धार्मिक स्थल से कम नहीं। असल में आज का यह गुरुद्वारा कभी भाई धरम सिंह का पुस्तैनी घर हुआ करता था। भाई धरम सिंह मूलत: जाट समुदाय के थे। उनका नाम धरम दास था। वह भाई संतराम और माई साबो के पुत्र थे, जिनका जन्म सैफपुर करमचंद, हस्तिनापुर में 1666 में हुआ था। यह संत बेहद धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने सिक्ख धर्म को उस समय से पेश किया जब वह मात्र 13 वर्ष के थे। उन्होंने अपने जीवन का अधिकाश समय ज्ञान प्राप्त करने की खोज में लगा दिया। आत्म बलिदान की कसौटी पर खुद को प्रस्तुत कर वे गुरु गोविंद सिंह के पंज प्यारे बनकर सामने आए और खालसा पंथ की स्थापना संभव हुई। 42 साल की उम्र में 1708 में उनका देहावसान गुरुद्वारा नानदेव साहिब में हो गया था। उनके देहावसान के बाद ही उनके आवास के स्थान पर गुरुद्वारा स्थापित किया गया। इतिहासविद् डा. अमित पाठक बताते हैं कि आज भाई धरम सिंह गुरुद्वारा को सिख समुदाय में सबसे पवित्र केंद्रों में से एक माना जाता है।
इस तरह चुने गए थे पंज प्यारे
जनश्रुतियों के अनुसार मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिंद सिंह ने वैशाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय के साथ ही अन्य समुदाय के लोगों को भी आमंत्रित किया। जहा गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिंद सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिंद सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने एलान किया..मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहा मौजूद सभी आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयासिंह (अथवा दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला, आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तंबू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में फिर सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिंद सिंह बाहर आकर फिर वही सवाल दोहराया, मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार धरमदास उर्फ भाई धरम सिंह आगे आये जो हस्तिनापुर में सैफपुर करमचंदपुर गाव के नवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। इसी तरह एक-एक कर उन्होंने कुल पांच बार ऐलान किया और उनके आह्वान पर जगन्नाथपुरी के हिम्मत राय उर्फ हिम्मत सिंह, द्वारका के युवक मोहकम चन्द उर्फ मोहकम सिंह और बीदर निवासी साहिब चन्द ने भी आत्म बलिदान के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर दिया।
पंज प्यारों की निष्ठा और समर्पण का ही परिणाम है खालसा पंथ
पांचों लोगों का सिर धड़ से अलग करने के कुछ देर बाद तंबू से गुरु गोबिंद सिंह केसरिया बाना पहने पाच सिख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोबिंद सिंह तंबू में ले गए थे। पाचों नौजवानों ने कहा, गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहा उपस्थित जनसमुदाय से कहा..आज से ये पाचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिख धर्म को पंज प्यारे मिल गए। इन्होंने ही अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ को जन्म दिया। वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह
गुरु गोबिंद सिंह ने ही 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानि खालिस (शुद्ध) जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। पाच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं, जहा पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त कर समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की। गोबिंद सिंहजी ने एक नया नारा दिया था..'वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह'।