'पराली नहीं, चूल्हा जलाने से भी होता है प्रदूषण'
आइआइटी के पुरातन छात्रों की सामाजिक संस्था नींव की ओर से राष्ट्रीय वेबिनार आयोजित किया गया। इसका विषय रहा पराली जलने से उत्पन्न प्रदूषण रोकथाम व उसका उपयोग।
मेरठ, जेएनएन। आइआइटी के पुरातन छात्रों की सामाजिक संस्था नींव की ओर से राष्ट्रीय वेबिनार आयोजित किया गया। इसका विषय रहा पराली जलने से उत्पन्न प्रदूषण, रोकथाम व उसका उपयोग। कार्यक्रम की शुरुआत संस्था के राष्ट्रीय समन्वयक मेरठ निवासी डा. उपदेश वर्मा ने किया।
डा. वर्मा ने बताया कि पिछले वर्ष जब दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक रूप से बढ़ा तो संस्था व आइआइटी दिल्ली के एलुमनाई ने दिल्ली के मुख्यमंत्री से मुलाकात की थी। इस दौरान पराली को जलाने के बजाय उससे एग्रो बोर्ड बनाने का सुझाव दिया था। इन बोर्ड में दीमक नहीं लगती और 70 साल से ज्यादा तक सही रहते हैं। साथ ही पराली जलने से जो प्रदूषण होता है, उससे भी निजात मिल जाएगी। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय की प्रतिकुलपति प्रोफेसर वाई विमला कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुई। उन्होंने बताया कि प्रदूषण केवल पराली से उत्पन्न नहीं होता बल्कि चूल्हा जलाने, कूड़ा जलने, फैक्ट्रियों की चिमनियों व वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या से लगातार बढ़ रहा है। डिप्टी जनरल मैनेजर, एनटीपीसी व नींव के वाइस प्रेसीडेंट राजन वाष्र्णेय ने बताया कि 2009 का पंजाब प्रिजर्वेशन सबसाइल वाटर एक्ट है 10 जून से पहले किसानों को खेतों में धान की रोपाई से रोकता है। संस्था की सचिव डा. गीतांजलि ने बताया कि देश में धान, गेहूं, गन्ना, कपास, मक्का, सोयाबीन, सरसों आदि फसलों के लगभग 87 मीट्रिक टन अवशेष जला दिए जाते हैं। इनमें धान के 40 फीसद, गेहूं 22, और गन्ना 20 फीसद और कपास के कुल आठ फीसद अवशेष शामिल हैं। दिल्ली की खराब वायु गुणवत्ता में इसका योगदान 25 से 30 फीसद के बीच अनुमानित है।
धान की खेती 50 फीसद कम करने की आवश्यकता
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सेवानिवृत्त अपर निदेशक डा. एसके त्यागी ने बताया कि हमें धान की खेती को 50 फीसद कम करने की आवश्यकता है। आइआइटी दिल्ली के डा. विक्रम सिंह ने बताया कि पराली जलाने से सबसे अधिक प्रदूषण फैलता है। डा. एस के गोयल, पंखुड़ी गुप्ता, प्रो बीर पाल सिंह, प्रोफेसर अनल कुमार मलिक आदि ने भी विचार व्यक्त किए।