गलत से तौबा की तालीम देता मुहर्रम
मुहर्रम इस्लामी तारी़ख का पहला महीना है। यह महीना एक ऐसी घटना का गवाह रहा है जिसकी मिसालें इतिहास में बहुत कम ही मिलती हैं। आज से 14 सौ साल पहले इराक के कर्बला में एक अनोखी जंग लड़ी गई थी।
जागरण संवाददाता, मधुबन (मऊ) : मुहर्रम इस्लामी तारी़ख का पहला महीना है। यह महीना एक ऐसी घटना का गवाह रहा है जिसकी मिसालें इतिहास में बहुत कम ही मिलती हैं। आज से 14 सौ साल पहले इराक के कर्बला में एक अनोखी जंग लड़ी गई थी। इसमे एक तरफ लाखों की फौज थी तो दूसरी तरफ केवल इमाम हुसैन सहित उनके कुल 72 साथी, जिसमें बच्चे और औरतें भी शामिल थे। इस जंग का नतीजा क्या निकलना है , यह तो सबको पता था। दस दिनों तक चली इस लड़ाई में एक एक करके इमाम हुसैन के सभी साथी शहीद हो गए। दसवें दिन इमाम हुसैन ने भी शहादत को गले लगाया। बादशाह यजीद की जीत हुई, मगर सच पूछिए तो यजीद जीत कर भी हार गया। क्योंकि वह चाह कर भी इमाम हुसैन को अपने आगे झुका नहीं पाया। इमाम हुसैन ने बातिल यानि झूठ के सामने सिर झुकाने से बेहतर सिर को कटाना समझा और इस जंग ने पूरी दुनिया को एक संदेश देने का कार्य किया कि हमें गलत का साथ कभी नहीं देनी चाहिए। यदि इसके खिलाफ जंग भी करनी पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। भले ही इसमें जान ही गंवानी क्यों ना पड़ जाए। इमाम हुसैन यदि चाहते तो बादशाह यजीद की बात मान उससे समझौता कर अपनी जान बचा सकते थे लेकिन उन्होंने सिर झुकाने से बेहतर उसे कटाना समझा और इस प्रकार वह मर कर भी शहीद कहलाए।