बस मुद्दे तक ही सिमटे रह गए बुनकर
घोसी (मऊ) : डिजाइन हुई टेढ़ी, साड़ी हुई महंगी। बढ़ती गयी महंगाई और घटती गई मजदूर
घोसी (मऊ) : डिजाइन हुई टेढ़ी, साड़ी हुई महंगी। बढ़ती गयी महंगाई और घटती गई मजदूरी। यानी यहां तो गणित और अर्थशास्त्र दोनों ही गड़बड़ हो गए हैं। बुनकर वर्ग हर राजनीतिक दल चुनाव के दौरान एक मुद्दे के रूप में पेश करता है पर कभी शिद्दत से इनकी भलाई की नहीं सोचता। इनके बुनियादी मसायल जस के तस हैं। इनके लिए तालीम की भी मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो सकी है। ऐसे में युवाओं के सपने तो टूट ही रहे अब फांकाकशी की तस्वीर डराने लगी है। खाड़ी मुल्कों का रुख करना ही इनकी किस्मत में लिखा प्रतीत होता है।
घोसी कस्बा के मदापुर या करीमुद्दीनपुर नहीं वरन जनपद सहित समूचे प्रदेश के बुनकर वर्ग का एकमात्र पुश्तैनी पेशा बुनकरी रही है। पर अब यह समुदाय अपना मुल्क छोड़ खाड़ी देशों में बतौर श्रमिक भविष्य तलाशने को विवश है। कुछ लूम या जेवर बेच कर पासपोर्ट और वीजा का इंतजाम करते हैं। स्थानीय नगर के विभिन्न मुहल्लों से अरब मुल्कों की राह पकड़ने वाले बुनकर युवाओं की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। यह सभी अब अपने पुश्तैनी कारोबार बुनाई को छोड़कर विदेश में कोई भी नौकरी करने को यूं ही तरजीह नहीं दे रहे। अब इस तानी बानी के सहारे परिवार की रोजी-रोटी चलाना नामुमकिन हो गया है। हालात ऐसे बन चुके हैं कि जान से प्यारे लूम को बेचना अब अंतिम विकल्प बन चुका है। कभी जिस पर नाज था आज उसी से बेजार हैं बुनकर। नगर की गलियों में कभी खटर-पटर की आवाज हर घर से उठती थी। शरीर पर बनियाइन तहमद, चेहरे पर नूर और मुंह में पान की गिलौरी बुनकरों की पहचान थी। दिन हो या रात हर फिक्र को धुएं में उड़ाने के वो दिन अब लद गए हैं। दरअसल आज से डेढ़ दशक पूर्व प्रतिदिन तीन से चार साड़यिां एक लूम पर तैयार होती थीं तो मजदूरी प्रति साड़ी पचास से साठ रुपये होती थी। बुनकर की हैसियत का अंदाजा उसके घर में लूमों की संख्या से लगता था। महंगाई बढ़ी तो साड़यिों के दाम भी बढ़े पर बुनकर की बानी यानी मजदूरी अब घटकर 20-25 रुपये हो गयी है। कभी पैतीसवां और पचासा साड़ी, करिश्मा साड़ी, अंचरी साड़ी का जमाना था पर अब फैशन बदला तो बुनकरों ने महंगी तनछुइया एवं डिजाइनदार सफेद साड़ी की ओर रुख किया। अब लूम पर सफेद साड़ी और इम्ब्राइडरी तक बनने लगी हैं। विडंबना यह कि इन साड़यिों की मजदूरी जो कभी डेढ़ सौ से अधिक थी घटकर अब पचास-साठ रुपये हो गई है। एक लूम पर बमुश्किल दो साड़ी ही तैयार हो पाती हैं। भुगतान नकद न मिलना एक अलग समस्या है। ऐसे में बुनकरों के हालात बद से बदतर होते चले गये। कुछ बुनकर परिवारों में तो माह के तीस दिनों चूल्हा भी नहीं जल पाता है। बुजुर्ग भले ही इस पुश्तैनी कारोबार से चिपके हैं पर युवा अब तौबा करने लगा है।