चटनी, प्याज के साथ हलक से उतार रहे रोटी
-कोरोना की आपदा में लॉक हो गई प्रवासी मजदूरों की जिंदगी -काम बंद हुआ तो रोटी का भी खड़ा हो गया संकट
मथुरा : ये उन प्रवासी मजदूरों की जिंदगी का स्याह सच है, जिन्होंने परदेस में कमाई कर जिंदगी के सुनहरे सपने देखे थे। कोरोना की आपदा में लॉकडाउन हुआ, तो काम बंद हो गया। लौटकर उस गाव आए, जिसे बेहतर भविष्य की चाह में छोड़कर गए थे। सपने टूटे, तो तिनके की तरह बिखर गए। नाउम्मीदी के अंधेरे में हाथ भी खाली हैं। सासें चलानी हैं, तो रोटी के लिए कर्ज भी लेना पड़ रहा। राशन कब खत्म हो जाए, भरोसा नहीं। सब कुछ ऊपर वाले के भरोसे। अंधेरे के बीच उम्मीद की किरण कहती है अच्छी सुबह कभी तो आएगी। मथुरा से किशन चौहान और प्रवीण गोस्वामी की रिपोर्ट। नाउम्मीदी में घिर गए हरी सिंह
बरसाना का मानपुर गाव। यहा के हरी सिंह परिवार के साथ बीस बरस पहले फरीदाबाद कमाने गए थे। दो कमरे का मकान पाच हजार रुपये हर माह के किराये पर लिया। परिवार में सात सदस्य हैं। पत्नी गीता (60), बेटा गोपाल (30), बहू मीना (25), नातिन परी (6), नाती कुणाल (20) और छोटा बेटा सुखवीर। दो बेटों के साथ हरी सिंह मजदूरी करते तो परिवार की गाड़ी आराम से चल जाती। लॉकडाउन हुआ तो 25 मार्च को गाव लौट आए। गाव में सात लोगों के रहने को बस एक कमरा। बिजली का कनेक्शन तक नहीं। एक इंच भी खेती नहीं। जहा मजदूरी करते थे, वहा लॉकडाउन के कारण भुगतान नहीं हुआ, तो पेट पालने का संकट आ गया। गाव में परिचित से 15 हजार रुपये उधार लिए। दस हजार रुपये फरीदाबाद के मकान का किराया भिजवाया, तो पाच हजार रुपये में घर का खर्च। बेबसी ऐसी कि न तो राशन कार्ड है और न ही आधार कार्ड। इतना पैसा कभी नहीं हुआ कि बैंक में खाता खुलवाने की जरूरत पड़े। रोज सुबह जंगल से लकड़ी बीनकर आती है, तो ईंधन हो पाता है। कुछ दिन पहले गाव के प्रधान संजय सिंह से संपर्क किया, तो उन्होंने गेहूं और चावल दिला दिए। बेटे गोपाल ने गाव में दो दिन मकान निर्माण में मजदूरी की, तो 950 रुपये मिले थे, वह पंसारी को दे दिए। बच्चों के लिए दूध एक लीटर रोज आता है। चीनी, तेल व अन्य सामग्री में ही बाकी पैसा खर्च। हाथ में दो हजार रुपये बचे हैं। बुधवार रात हरी सिंह के घर में दाल और चावल बना, तो गुरुवार सुबह चटनी और प्याज के साथ निवाला गले के नीचे उतारा। सब्जी दो दिन पहले घर में बनी थी। भूख से रोज जंग लड़नी पड़ रही है।
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कर्जा चुकाया,अब खाने के लाले
नंदगाव के लखन और उनके भाई जितेंद्र की जिंदगी में भी दुश्वारिया कम नहीं हैं। कई साल पहले मा को कैंसर हुआ, तो दो रुपये सैकड़ा की ब्याज पर एक लाख रुपये ब्याज पर लिए। पाच साल पहले मा का देहात हो गया। ऐसे में परिवार को यहा छोड़ रोजगार की तलाश में तेलंगाना चले गए। वहा तीन से चार माह कंबाइन मशीन चलाते हैं। लखन को दस हजार तो जितेंद्र को आठ हजार रुपये मिलते हैं। लॉकडाउन हुआ तो दोनों घर लौटे। जो कमाते थे, उससे करीब चालीस हजार रुपये कर्ज चुकाया। हालांकि, उधार देने वाले ने दरियादिली दिखा लॉकडाउन के दिनों का ब्याज माफ कर दिया, लेकिन साठ हजार अब भी बकाया है। लखन के घर में पत्नी 38 बरस की है, तो तीन बच्चे 8 से 18 साल की उम्र के हैं। कुछ माह पहले ही छोटे भाई जितेंद्र की शादी हुई है। दोनों के पास राशन कार्ड है। लखन को माह में 15 किलो गेहूं, दस किलो चावल मिला। जबकि जितेंद्र को छह किलो गेहूं और चार किलो चावल मिला। बुधवार को घर में गेहूं का एक भी दाना नहीं था, तो चावल बमुश्किल चार किलो। एक समाजसेवी ने एक सप्ताह का राशन दिया, तो खाना बना। लखन बताते हैं कि बुधवार रात दाल रोटी बनी, तो सुबह भी वही। चार से पाच दिन तो राशन चल जाएगा। बाकी भगवान मालिक है।
तीन हजार रुपये बचे, बीमार हुए तो भगवान मालिक
बरसाना के गाव कमई के धर्मवीर गुरुग्राम में मजदूरी करते थे। पाच साल से वहीं मानेसर में झुग्गी डाल रहते थे। लॉकडाउन में 28 मार्च को घर आ गए। पत्नी उच्जा (38), बेटी आरती (13), शीतल (11), राजो (9) और बेटा राजवीर (12) है। पति-पत्नी दोनों मजदूरी करते थे, तो दस हजार रुपये तक हर माह कमा लेते थे। राशन कार्ड है, तो गेहूं और चावल मिल जाते हैं। गेहूं इतने नहीं हो पाते कि पूरे माह काम चले। चावल तो ठीक मिलते हैं, लेकिन कब तक चावल खाएं। आसपास के लोगों से सब्जी माग या फिर कच्ची प्याज के साथ रोटी से काम चल रहा है। धर्मवीर के पास कुल जमा तीन हजार रुपये हैं। चिंता ये कि परिवार में कोई बीमार हो गया, तो क्या होगा। गाव में अपना कच्चा मकान है, लेकिन खेती नहीं। रात में दाल चावल खाया, तो सुबह आलू की सब्जी संग रोटी। करीब 30 किलो चावल और बीस किलो गेहूं। गेहूं करीब छह दिन चल जाएंगे। धर्मवीर कहते हैं कि इसके अलावा भी कई खर्चे हैं। वह कहा से पूरे होंगे। मजदूरी न करेंगे, तो खाएंगे क्या
कमई गाव में ही रहने वाले राजेंद्र भी गुरुग्राम में मजदूरी करते हैं। पाच साल से वहीं झुग्गी में रहते हैं। एक पैर से दिव्याग है। लॉकडाउन होते ही जैसे-तैसे राजेंद्र 28 मार्च को गाव आ गए। गाव में बने एक कमरे में राजेंद्र (50) व उसकी पत्नी सत्ती (45), बेटी राखी (18), बेटा तेज सिंह (23), विष्णु (20) रहते हैं। राजेंद्र का गाव में राशन कार्ड है तो राशन मिल रहा है। लेकिन अन्य दैनिक उपयोग की सामग्री खरीदने के लिए पड़ोसियों से मदद लेनी पड़ती है। राजेंद्र बताते हैं कि कभी अचार के साथ रोटी खा लेते हैं, तो कभी प्याज और आलू की सब्जी बन जाती है। राजेंद्र के साथ बेटा और बेटी भी मजदूरी करते हैं। राजेंद्र बताते हैं राशन कार्ड से जो राशन मिलता है, करीब चार दिन चल जाएगा। जेब में करीब 25 सौ रुपये हैं। ऐसे में भविष्य अंधकारमय दिख रहा है।
कर्ज लेकर पाल रहे परिवार का पेट
नंदगाव के नाहर सिंह थोक मुहल्ले के नानकचंद (52) बरस के हैं। कारपेंटर हैं। घर में पत्नी (48) बूढ़ी मा (75) और तीन बच्चे हैं। बड़े बेटे की उम्र 15 साल है, तो उससे छोटे की 12 बरस। सबसे छोटी बेटी 8 बरस की है। नानकचंद लॉकडाउन के पहले तीन हजार रुपये हर माह कमा लेते थे। लेकिन अब वह भी काम नहीं मिलता। परिवार पालने को गाव के ही एक व्यक्ति से एक अप्रैल को 25 हजार रुपये दो फीसद ब्याज पर कर्ज लिए थे। उसी से परिवार पाल रहे हैं। वह कहते हैं कि कार्ड से सरकारी राशन मिल जाता है, लेकिन बाकी सामग्री तो रोज खरीदनी पड़ती है। 25 हजार में आधे खर्च हो गए। जो बचे हैं, उसी से गुजारा चल रहा है, पता नहीं कब मुसीबत आ जाए। नानकचंद बताते हैं कि लॉकडाउन में कुछ काम मिले, तो पाच सौ से सात सौ रुपये तक कमा लिए। लेकिन इससे गुजारा नहीं होना। रात को सब्जी रोटी खाई थी, तो दिन में अचार रोटी, शाम को खिचड़ी बनाने की तैयारी है।