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बुंदेली फिजाओं में शांत हो गई आल्हा की गूंज

जागरण संवाददाता, महोबा : पानीदार यहां के लोग, आग यहां के पानी में..' आल्हा खंड काव्य की

By JagranEdited By: Published: Thu, 23 Aug 2018 11:24 PM (IST)Updated: Thu, 23 Aug 2018 11:24 PM (IST)
बुंदेली फिजाओं में शांत हो गई आल्हा की गूंज
बुंदेली फिजाओं में शांत हो गई आल्हा की गूंज

जागरण संवाददाता, महोबा : पानीदार यहां के लोग, आग यहां के पानी में..' आल्हा खंड काव्य की ये जोशीली पंक्तियां फिजाओं में गूंजते ही बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगती थीं। बुंदेलखंड का आल्हा महज एक ग्रंथ नहीं बल्कि यहां के शौर्य एवं वीरता का गवाह है। दुर्भाग्य है, कि वीर आल्हा ऊदल की मातृभूमि महोबा के दिसरापुर गांव के साथ ही इसकी गूंज अब नहीं सुनाई देती। चौपालों से गुम हुए आल्हा से युवा पीढ़ी का भी मोहभंग हो गया है। अब ये बचे हुए कुछ आल्हा गायकों की जुबां तक सिमटकर रह गया है।

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शहर के छिकहरा गांव के आल्हा सम्राट वंशगोपाल यादव बताते हैं कि आल्हा वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत और परमाल रासो पर आधारित बुंदेली और अवधी का एक विशेष छंदबद्ध काव्य है। आल्हा काल की 52 लड़ाइयों का इसमें जिक्र किया गया है। एक जमाना था जब चौपालों में सावन मास की शुरुआत में ही 'जिनके दुश्मन सुख में सोएं उनके जीवन को धिक्कार.' पंक्तियां बुंदेलों में जोश भर देती थीं। पेड़ों के नीचे चबूतरों और गांव के प्रमुख स्थानों पर आल्हा गायकों का हुजूम लगता था पर अब ये इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया है। वह युवाओं के आल्हा काव्य से दूर होने का कारण नौटंकी, फूहड़ गाने, बुंदेली राई को मानते हैं। उनका मानना है कि यदि बुंदेलखंड में आल्हा शोध केंद्र खोला जाए तो इससे युवा पीढ़ी को आल्हा काव्य के बारे में जानकारी मिलेगी और उनकी रुचि बढ़ेगी। वह इसके लिए शासन को पत्र भेजकर मांग भी कर चुके हैं। हालांकि कजली महोत्सव के दौरान आल्हा परिषद के अध्यक्ष शरद तिवारी दाऊ आल्हा गायन को जीवंत रखने का अभियान चला रहे हैं।

युवाओं की बात

आल्हा खंड काव्य आल्हा ऊदल की वीरता और शौर्य को बताता है। इसे सुनकर जोश आ जाता है। हालांकि पहले की तुलना में अब इसका चलन कम हो गया है।

-रविंद्र तिवारी

आल्हा सुनने में जोश के साथ ही लोगों को अपने पूर्वजों की वीरता के बारे में पता चलता है। आल्हा की कैसेट लेकर घर में आल्हा सुन लेते हैं।

-तरुण कुमार गुप्ता

बालीवुड गानों ने आल्हा गायन को बहुत पीछे छोड़ दिया है। हां आल्हा के बारे में सुना जरूर है लेकिन इसे सुनने में लोगों का कोई खास जुड़ाव नहीं है।

-अच्छेलाल सोनी

आल्हा गायक भी अब गिने चुने बचे हैं। ऐसे में जब इसकी जानकारी ही नहीं हो पाती तो लोग इससे जुड़ नहीं पाते। एक दो बार दुकानों में बज रहे आल्हा खंड काव्य को सुना है।

- उमेश यादव


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