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मैं लखनऊ हूं...यहां सियासत से बनी विरासत

विश्व धरोहर सप्ताह मनाने का इतिहास कुछ भी हो, प्रयोजन यह होता है कि हम इन धरोहरों की शक्ल में अपने सांस्कृतिक, राजनीतिक, मूल्यों का इतिहास संरक्षित कर सकें। इनके प्रति लोगों को जागरूक रखें।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Fri, 16 Nov 2018 12:48 PM (IST)Updated: Fri, 16 Nov 2018 12:48 PM (IST)
मैं लखनऊ हूं...यहां सियासत से बनी विरासत
मैं लखनऊ हूं...यहां सियासत से बनी विरासत

लखनऊ, (अजय शुक्ला)। वीकेंड मनाकर जब सोमवार को काम पर लगेंगे तो आप पर एक नैतिक जिम्मेदारी आयद होगी। विरासतों के संरक्षण की। विश्व धरोहर सप्ताह जो है। यह जिम्मेदारी आप पर इतवार तक रहेगी। ना, आप इसे तंज कतई न समझें। सचमुच। अगले सोमवार और फिर इतवार को आप पर कोई दूसरी नैतिक जिम्मेदारी आन पड़ेगी। मैं समझता हूं आपकी मसरूफियत। रोजी-रोटी के और भी काम तो हैं। बात विरासतों की चली है तो मैं अपनी कुछ दिलचस्प फाइंडिंग आपकी नज्र करता हूं।

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अब खुद अपनी तारीफ क्या करूं। मेरे दामन में इतनी विरासतें सिमटी हैं कि फकत सूची ही लिख दूं तो साया (प्रकाशित) होना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए तारीफ मेरे बाशिंदों की जिन्होंने मुझे बनाया। लेकिन, सच कहूं तो सियासत मुझे खूब फली और विरासतें बनती गईं। रूमी दरवाजा लखनऊ का सिग्नेचर स्ट्रक्चर है, लेकिन सिग्नेचर बिल्डिंग की बात की जाए तो बड़ा इमामबाड़ा का जिक्र अव्वल आता है। तो, इसी की बात पहले करते हैं। जहां भूलभुलैया है, आसफी मस्जिद है, अनूठी बावड़ी है और भी बहुत कुछ।

पर, तनिक ठहरिए। साफ कर दूं कि विश्व धरोहर सप्ताह मनाने का इतिहास कुछ भी हो, प्रयोजन यह होता है कि हम इन धरोहरों की शक्ल में अपने सांस्कृतिक, राजनीतिक, मूल्यों का इतिहास संरक्षित कर सकें। इनके प्रति लोगों को जागरूक रखें। तो, मेरा उन्वान है कि विरासतें सियासत से जन्मीं। दौर नवाबी काल का था। बहुत लोगों को शायद जानकारी न हो तो बता दूं कि नवाबीकाल के बारे में मेरी अपनी राय यह है कि यह वह दौर था, जब सत्ता और सियासत की डोर किसी और के हाथ में थी और उसकी शक्ल कुछ और थी। अधिकार किसी और के पास थे और उसका चश्मोचिराग कोई और था। यानी, सत्ता दिल्ली में मुगलों के हाथ से फिसलकर ब्रिटिश हुकूमत के पास थी, लेकिन उसके हुक्म की तामील का जिम्मा नवाबों के हाथ था। नवाबों के साथ दोहरी मुसीबत थी। जनता उन्हें अलंबरदार समझती थी और असल में, वे ब्रिटिश हुकूमत के अलंबरदार थे। सवाल गैरत का था, सो नवाब अवाम के इस भ्रम को तोडऩा भी नहीं चाह रहे थे। चूंकि, इतिहास के नजरिए से अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, इसलिए मुकम्मल तौर पर मजम्मत भी नहीं, लेकिन डर है कि जब इतिहास पुस्तकों से पैराग्राफ की शक्ल अख्तियार करेगा तो इस दौर को अवसाद काल भी कहा जा सकता है।

बड़ा इमामबाड़ा की बुनियाद यूं पड़ी कि उस दौर में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। यह अकाल मामूली नहीं था। इसका अनुमान लगाना हो तो गौर करिए कि मेरे यानी लखनऊ और आसपास का राजनीतिक इतिहास जो भी हो पर भौगोलिक इतिहास और भी गौरवमयी है। यह वह धरती है जहां गोमती नदी सबसे पहले किसी शहर के बीच से निकलती है। इसे आदि गंगा यानी, गंगा से पूर्व की नदी भी कहते हैं। अब यह सुल्‍तानपुर और जौनपुर के भी बीच से निकलती है। बताने की जरूरत नहीं कि जो शहर सहस्राब्द्रियों से आबाद हैं, वह किसी ने किसी नदी के किनारे हैं। यह बात दीगर है कि अब शहर हाइवे और एक्सप्रेसवे के किनारे आबाद होने लगे हैं, लेकिन इनके बारे में इतना ही कहूंगा कि प्रभु राम और उनके अनुज इन्हें लंबी उम्र दराज करें। चूंकि, मैं आदि गंगा के किनारे आबाद हूं, तो यह सहज ही समझा जा सकता है और तथ्य भी इंगित करते हैं कि महज लखनऊ ही नहीं मैं पूरे उत्तरी भारत के लिए अनाज उत्पादन का केंद्र रहा हूं।

अकाल पड़ा तो नवाब आसफुद्दौला को अपनी रियाया की याद आयी। खुदा, उन्हें जन्नत से भी ऊंचा मुकाम बख्शे, उन्होंने उस दौर की अकाल राहत परियोजना के तहत एक ऐसी इमारत का निर्माण कराना मुकर्रर समझा, जिसकी मुख्य वजह लोगों को रोजगार और काम के बदले रोटी मुहैया कराना था। इस सिलसिले में बड़ा इमामबाड़ा की तामीर शुरू हुई। मकसद नेक था, सो जुमला चल निकला, जिसको न दे मौला, उसको दे आसफुद्दौला। एक गलतख्याली और है कि हमारे यहां जो तरक्की आयी वह बाहर से आयी। ऐसा कतई नहीं। आसफुद्दौला को थोड़ी देर के लिए भूल जाएं तो बड़ा इमामबाड़ा की जो विश्व प्रसिद्ध इमारत तामीर हुई उसके आर्किटेक्ट और बिल्डर पर चर्चा कर लें। इस इमारत के आर्किटेक्ट थे जनाब किफायतुल्ला साहब और इनके बेटे मोहिबुल्ला खां साहब।

इस इमारत की खुशूशियात इतनी हैं कि पूरी किताब लिख जाए। पर, इतना जिक्र जरूरी है कि 489 दरवाजों वाली भूलभुलैया, पांच मंजिला बावड़ी (कुआं व स्नानागार) जिसकी तीन मंजिलें हमेशा पानी में डूबी रहती हैं और जहां पानी गोमती नदी के प्राकृतिक जलस्रोतों से आता है, यहीं है। अजूबा यह कि सन 1784 में शुरू होकर महज छह साल (कुछ लोग दो साल भी कहते हैं) में तैयार राजपूत-मुगललिया शैली और यूरोपीय गोथिक शैली (जो फ्रांस से जन्मीं और पूरे यूरोप में छाई, बहुत से गिरजाघर इसी शैली में निर्मित हैं) की यह इमारत यानी बड़ा इमामबाड़ा का मुख्य हाल विश्व में अपनी तरह का पहला ऐसा हाल है जिसकी छत न खंभे, न लोहा, न लकड़ी के सहारे टिकी है। बस, यह ईंटों की कुछ ऐसी जोड़ाई है कि जिसका कोई जोड़ दुनिया में दूसरा नहीं। यह कोई मामूली क्षेत्रफल में निर्मित अजूबा नहीं। इमामबाड़े के जिस केंद्रीय कक्ष की बात हम कर रहे उसकी लंबाई 163 फीट, चौड़ाई 53 फीट और ऊंचाई 50 फीट बताई जाती है। सिर्फ ऊंचाई से अनुमान लगाएं तो 10-10 फुट ऊंचाई की पांच मंजिला इमारत जैसा तल बिना किसी सपोर्ट के तकरीब सवा दो सौ साल से टिका है।

मुझे सबसे ज्यादा खुशी और सियासत के प्रति शुक्रगुजार होने का जो जज्बा है, उसकी खास वजह यह भी है कि मेरा जैसे-जैसे विस्तार होता जा रहा है भविष्य की विरासतें भी गढ़ती जा रही हैं। मसलन, अंबेडकर स्मारक या पार्क, कांशीराम ईको गार्डन, उपवन स्थल, रमाबाई रैली स्थल, एशिया का सबसे बड़ा जनेश्वर मिश्र पार्क, जय प्रकाश नारायन इंटरनेशनल सेंटर, इकाना या फिर हाल में नए नामकरण से संवारा गया भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम और अभी डेवलप हो रहा (फिलहाल मैं दुखी हूं) गोमती रिवर फ्रंट।

सबसे पहले बात डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल की।

गोमती नगर में डॉ भीमराव अंबेडकर स्थल का निर्माण तब शुरू हुआ जब दलितों की देवी कही जाने वाली मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी। मगर, बीच में जब-जब बसपा सरकार जाती, काम रुक जाता। रुकते-होते आखिरकार काम 2011 में पूरा हो गया। लगभग एक हजार करोड़ रुपये का खर्च हुआ। इमामबाड़ा पर दस लाख बताया जाता है। करीब 120 एकड़ में यह स्मारक पार्क की शक्ल में निर्मित है। दलित महापुरुषों की प्रतिमाओं के अलावा मायावती और कांशीराम की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं। बड़ा इमामबाड़ा की तरह इसकी भी खासियत यह है कि पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने जीते-जी स्वयं की प्रतिमा स्थापित कराई। आज यह सैर सपाटे का स्थल है, लेकिन इसके निर्माण में जो पैसा और संसाधन खर्च हुए वह इसे एक न एक दिन जरूर मेरी बड़ी विरासत का मान दिलाएंगे।

इसी तरह कांशीराम स्मारक और ईको गार्डन बनाया गया। वीआईपी रोड पुरानी जेल को ध्वस्त कर के कांशीराम ईको गार्डन और स्मारक स्थल का निर्माण लगभग 125 एकड़ में कराया गया। इस पर भी करीब एक हजार करोड़ का खर्च आया। यह निर्माण भी 2011 में पूरा हुआ। ईको गार्डन में पशु पक्षियों की प्रतिमाएं आकर्षण हैं। जबकि स्मारक स्थल का लुक कुछ कुछ ताजमहल जैसा है।

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की कहानी अलग है। साल 2008 में बसपा काल में गोमतीनगर का डॉ.भीमराव अंबेडकर स्टेडियम जमींदोज कर स्मारक में मिला दिया गया। भारी विरोध पर तत्कालीन सरकार ने इसी नाम से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के लिए गोमतीनगर विस्तार में जमीन अधिग्रहीत की। गांव अहिमामऊ की ये जमीन ली गई थी। 2010 में बसपा काल में ही एलडीए ने पीपीपी पर स्टेडियम बनाने का प्रस्ताव बनाया था। मगर यह अमली जामा नहीं पहन सका। इस प्रस्ताव को 2012 में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की सरकार ने निरस्त करके इसी तरह का नया प्रस्ताव एलडीए से बनवाया। ट्रिपल-पी मॉडल पर इकाना नाम से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण 2013 में शुरू करवाया, जिसमें एक निजी कंपनी ने साढ़े चार सौ करोड़ रुपये में स्टेडियम बनाया। बदले में कंपनी को एलडीए से 67 एकड़ जमीन दी गई। यहां पहला टी-20 क्रिकेट मैच भारत-वेस्ट इंडीज के बीच खेला गया जिसमें भारतीय टीम ने विजय हासिल की। हालांकि, सियासत ने इस स्टेडियम का नाम अटल बिहारी के नाम पर कर दिया। इसमें कोई एतराज की बात नहीं लगती।

जयप्रकाश नारायण केंद्र भी समाजवादी पार्टी के शासनकाल में तैयार हुआ। गोमती नगर विपिनखंड में जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय केंद्र का निर्माण करवाया गया। ये निर्माण अखिलेश यादव सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट था। इस पर करीब एक हजार करोड़ रुपये का खर्च आया। 19 मंजिल की इमारत में ऑलवेदर स्वीमिंग पूल, बैडमिंटन कोर्ट, म्यूजियम, कई सभागार और करीब सवा सौ कमरों का गेस्ट हाउस बना हुआ है।

ये धरोहरें हैं। कुछ पुरानी, कुछ नई। कुछ आज की, कुछ भविष्य की। इतिहास के विद्यार्थी शायद याद रखें कि यह धरोहरें कैसे बनीं, लेकिन आज जब मैं कभी अपनी इन धरोहरों के गिर्द चहलकदमी करता हूं तो पाता हूं कि बेहद संजीदगी और कल्पनाशीलता व सुविचारित उद्देश्य के साथ तैयार इन विरासतों या धरोहरों में किसी मजनू की फरियाद खरोंच की शक्ल में दर्ज है तो किसी लैला की बेशऊरी। हम विश्व धरोहर सप्ताह मनाकर शायद फिर याद न करें पर असलियत तो यही है कि यह खरोंचे एक दिन दीमक की तरह चट न कर जाएं इतिहास और वास्तुकला की इस अद्भुत कल्पनाशीलता और सियासी दूरंदेशी को।


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