कलाकारी : लिटरेरी लवर मैडम की साफगोई
साप्ताहिक कॉलम कलाकारी में दुर्गा शर्मा की कलम से।
अंग्रेजी साहित्य पढ़कर मैडम सोचती हैं हिंदी के लेखकों से भी संवाद कायम कर पाएंगी। वो बातचीत के दौरान हिंदी के बीच-बीच में जबरन अंग्रेजी के शब्द डालकर मिश्रित भाषा की वकालत करती हैं। मैडम कार्यक्रम से पहले की तैयारी में भी यकीन नहीं रखती हैं। फिर ऑनलाइन साहित्यिक बैठकों में लोग ही कितने जुटते हैं, जो उन्हें तैयारी करने की जरूरत लगे। अति आत्मविश्वास ऐसा कि जिस किताब पर बात होनी होती है, उसे भी नहीं पढ़ती हैं। संवाद विषय से कितना ही भटक जाए, लेकिन बार-बार हाथ फेरकर बालों को अपनी जगह से हिलने नहीं देती हैं। ऐसा भी नहीं है कि वो कोई साहित्य मर्मज्ञ होने का ढोंग करती हैं। आपकी किताब पढ़ी नहीं है, ये बात वो लेखक को पहले ही बता देती हैं। अब आप हमारी लिटरेरी लवर मैडम के लिए चाहे जो धारणा बनाएं, हमें तो उनकी ये साफगोई बहुत अच्छी लगती है।
वाचाल व्यक्तित्व, मौन आंदोलन
मौन रहने से वाणी पर लगाम लगा सकते हैं। अनावश्यक प्रलाप से भी बच सकते हैं। पर मौन ऐच्छिक होना चाहिए, नाटकीय या खुद को कला और कलाकारों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने के लिए नहीं। जबरन का मौन कष्टकारी होता है। फिल्म और थियेटर वेलफेयर की बात करने वाले एक साहब आजकल इसी कष्ट से गुजर रहे। उन्होंने कलाकारों की मदद के लिए मौन आंदोलन का बिगुल बजाया है। वो मौन रहने का असफल अभ्यास भी करते हैं। उन्होंने एक मांगपत्र भी तैयार किया है। इसमें मांगों के साथ ही मौन विरोध के तरीके भी बताए हैं। फेस पेंटिंग, मूक अभिनय, डांस और चित्र आदि किसी भी तरह से बिना बोले अपनी बात रख सकते हैं। इस मौन मुहिम को कामयाब बनाने के लिए वो हर किसी को कॉल कर घंटों बतियाते हैं। हम देखना ये चाहते हैं अपने वाचाल व्यक्तित्व वाले साहब मौन कैसे रहते हैं।
वैमनस्य के विषाणु को कैसे हराएंगे
आजकल हर कोई कुछ ज्यादा ही फुरसतिया है। हाथ कंगन को आरसी क्या... शास्त्रीय संगीत के नाम से बने एक सोशल मीडिया ग्रुप को ही ले लीजिए। आप एक सवाल कीजिए, फिर ज्ञान की गंगा बहना शुरू हो जाती है। आपके सब्र का बांध टूट जाएगा, पर ज्ञान गंगा देर रात तक बहती ही रहती है। लिखित के साथ ही ऑडियो-वीडियो हर माध्यम का प्रयोग कर हर कोई जवाब देने को आतुर रहता है। अब आप कहेंगे कि सवाल पर जवाब आ रहे, ये तो अच्छी बात है। पर ये सोचने से पहले ठहरिए और जान लीजिए, ये जवाब देने की आतुरता नहीं, इसके पीछे एक दूसरे की बात को काटने और गलत साबित करने की मंशा होती है। कभी-कभी ये मंशा भाषाई शालीनता को भी पार कर जाती है। हमें भी एक सवाल करना है, हम कोरोना से तो जीत जाएंगे, पर वैमनस्य के विषाणु को कैसे हराएंगे?
सोशल मीडिया पर नये नवेले कवियों की बाढ़
साेशल मीडिया पर कविताओं की बाढ़ देखकर लगता है कोरोना ने कवियों को सृजन का सुनहरा अवसर उपलब्ध करा दिया है। नये नवेले कवि बहुतायत भी उग रहे। एक कविवर तो 10 से 12 कविताएं प्रतिदिन की औसत दर से लिख रहे। तुकांत और अतुकांत से परे काव्य लेखन की उनकी अलग ही विधा चलती है। वो कोरोना को मार गिराना है...पानी में आग लगाना है...टाइप की कविताएं लिखते हैं। हमें तो उनकी पंक्तियां समझ नहीं आतीं, पर वो इसे कविता ही कहते हैं। कई बार ख्याल भी आया कि इन्हें कविता का मर्म समझाया जाए। फिर सोचा, ये तो सोशल मीडिया के कवि हैं, इन्हें समझाने का लाभ नहीं। ये पाठकों के लिए नहीं, बस सोशल मीडिया पर हवा बनाने के लिए लिखते हैं। उसी आभासी दुनिया में ही खुश रहते हैं। हमारी तरफ से कोई पूछे उनसे, क्या वो अपना लिखा दोबारा पढ़ने का साहस रखते हैं?