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काकोरी काड के अनकहे किस्से: अशफाक उल्ला को फासी तो शचीन्द्र को हुई थी कालापानी की सजा

काकोरी काड को अंजाम देने वाले दस क्रातिकारियों में से एक थे शचीन्द्र नाथ बख्शी। ट्रेन रोककर लूट लिया था सरकारी खजाना।

By JagranEdited By: Published: Tue, 14 Aug 2018 05:17 PM (IST)Updated: Tue, 14 Aug 2018 05:26 PM (IST)
काकोरी काड के अनकहे किस्से: अशफाक उल्ला को फासी तो शचीन्द्र को हुई थी कालापानी की सजा
काकोरी काड के अनकहे किस्से: अशफाक उल्ला को फासी तो शचीन्द्र को हुई थी कालापानी की सजा

लखनऊ[अमित कुमार मिश्र]। आजादी एक दिन का संघर्ष नहीं है। लंबे समय तक किए संगठित प्रयासों का सुखद नतीजा है। स्वतंत्रता के लिए आदोलन का इतिहास हर किसी के सामने है। वहीं सही से न खुली कई परतें अब भी मौजूद हैं। क्राति के ऐसे ही अनकहे किस्सों को किताबों से कहने की कोशिश की गई है। यह कोशिश उनकी है जिन्होंने अपने चहेतों को देश पर खुशी-खुशी न्यौछावर कर दिया। काकोरी काड को अंजाम देने वाले दस क्रातिकारियों में से एक थे शचीन्द्र नाथ बख्शी।

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नौ अगस्त का दिन आते ही काकोरी काड की यादें ताजा हो जाती है। दस क्रातिकारियों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर इस काड को क्रियान्वित किया। सभी ने ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। इसमें से तीन लोग शचीन्द्र नाथ बख्शी, अशफाक व राजेंद्र लाहिड़ी ट्रेन की सेकेंड क्लास में बैठे हुए थे, क्योंकि कभी-कभी थर्ड क्लास से चेन खींचने पर ट्रेन नहीं रुकती थी। अन्य सात लोग अलग बोगी में थे। इस काड में शचीन्द्र नाथ को अहम भूमिका निभाते हुए ट्रेन के ड्राइवर को अपने कब्जे में लेना था। इसके बाद काकोरी स्टेशन से आउटर सिग्नल पार करते ही सेकेंड क्लास से चेन खींच कर ट्रेन रोक दी गई। इसके बाद तीनों लोग गार्ड की तरफ बढ़ने लगे और शचीन्द्र नाथ ने गार्ड के पास पहुंचते ही उस पर पिस्तौल तान उसे अपने कब्जे में ले लिया। खजाना लूटने से बाद शचीन्द्र नाथ ने बिस्मिल से कहा कि सूबेदार साहब आप लोग 300 गज जाने के बाद सीटी बजाइएगा तो मैं आ जाऊंगा। इस काड के कारण अंग्रेजी सरकार में खलबली मच गई। डेढ़ महीने बाद प्रदेश भर में छापे पड़े और इस दस लोगों में से पाच एवं अन्य संगठनों के 13 लोग गिरफ्तार किए गए। इन सभी पर काकोरी षड़यंत्र का मुकदमा चला। इसके बाद वर्ष 1926 में अशफाक उल्ला दिल्ली में और जनवरी 1927 में शचीन्द्र नाथ बख्शी को भागलपुर में गिरफ्तार किया गया। मुख्य मुकदमे में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र नाथ लोहिड़ी तथा रोशन सिंह को फासी की सजा हुई तथा अन्य को आजीवन कारावास से पाच साल तक की सजा दी गई थी। बाद में ट्रेन गार्ड की गवाही के बाद अशफाक उल्ला को फासी और शचीन्द्र नाथ बख्शी को आजीवन कालापानी की सजा हुई। वर्ष 1937 में प्रदेश काग्रेस की सरकार बनीं और काकोरी काड के सभी कैदियों को रिहा कर दिया।

जुबान की कीमत:

शचीन्द्र नाथ बख्शी ने ट्रेन के गार्ड को चेतावनी भरे लहजे में कहा कि गार्ड साहब आपने मुडो पहचान लिया है, क्यों न एक कारतूस खर्च कर पहचान के झझट को अभी खत्म कर दिया जाए। यह कहते ही गार्ड गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा कि मैंने आपको नहीं पहचानता और न ही पुलिस के सामने पहचानुगा। तब बख्शी ने गार्ड की जान बख्श दी। यहा हुआ निधन:

वर्ष 1980 में कनिष्ठ पुत्र के वाराणसी से सुलतानपुर स्थानातरण के कारण वह भी यही पर आ गए। सुलतानपुर में रहते हुए 84 वर्ष की आयु में 23 नवंबर 1984 में उनका निधन हो गया। यहा रहकर उनकी मुलाकात करतार केशव यादव से हुई जो उत्साही व देशभक्त युवक थे। उन्होंने शहीद स्मारक सेवा समिति, सुलतानपुर की स्थापना 1982-83 में की थी। संस्था ने शचीन्द्र नाथ बख्शी की स्मृति में जहा उनका अंतिम संस्कार हुआ था वहा 'शचीन्द्र नाथ बख्शी घाट व विश्रम स्थल' का निर्माण कराया है। ऐसे मिला इतिहास:

बख्शी जी के निधन के 16 वषरें पश्चात उनके द्वितीय पुत्र राजेंद्र नाथ सरकारी नौकरी से वर्ष 2000 में सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद वह एक दिन घर की सफाई कर रहे थे तभी उन्हें कुछ पत्रवलिया मिलीं। इनको छाटने पर शचीन्द्र नाथ बख्शी जी का लिखा 'मेरा फरारी जीवन' दिखा। इसको पूरा पढ़ने के बाद उनको लगा कि इन पत्रिकाओं के इतने पास होने के बाद भी मैं इनसे कितना दूर था। इसके बाद उनके लिखे लेखों व संस्मरणों का संकलन किया।

पानी पीकर गुजारा दिन:

राजेंद्र बख्शी कहते हैं कि जब मैं लखनऊ में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तब हॉस्टल में रहता था और मेस में भोजन करता था। कर्मचारी शादी-बरात में जब जाते थे तो दो-तीन दिन तक मेस बंद रहती थी। उन दिनों पैसे न होने की वजह से पानी पीकर रहना पड़ता था। यह वर्ष 1962 से 65 के बीच का समय था। मेरे बड़े भाई रवींद्र नाथ बख्शी बीए पास करने के बाद इतिहास में एमए करना चाहते थे। उस समय पिता जी ने उनसे कहा था क िनौकरी ढूंढ़ों और कुछ पैसे कमाओ। इस बाद भाई ने एक निजी कंपनी में नौकरी की। इसके दो वर्ष बाद उनकी स्टेट बैंक में नौकर लग गई और तब हमारे घर का आर्थिक संकट कुछ कम हुआ।

प्रकाशित पुस्तकें :

-स्वयं के संस्मरण-'क्राति के पथ पर'

- उपरोक्त पुस्तक का बाग्ला अनुवाद 'स्मृतीर बातायने'

- प्रथम पुस्तक का पंजाबी अनुवाद 'मेरा क्रातिकारी जीवन'

- सहयोगियों के संस्मरण-'वतन पर मरने वालों का' आदि।


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