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इस खंडहर की दीवारों से यूं ही नहीं सुनाई देतीं कहानियां, कभी विदेशी आर्मी का बना था अड्डा

दिलकुशा बाग आज भी दिल बहलाने का मनोरम ठिकाना है।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Fri, 08 Feb 2019 03:43 PM (IST)Updated: Mon, 11 Feb 2019 09:09 AM (IST)
इस खंडहर की दीवारों से यूं ही नहीं सुनाई देतीं कहानियां, कभी विदेशी आर्मी का बना था अड्डा
इस खंडहर की दीवारों से यूं ही नहीं सुनाई देतीं कहानियां, कभी विदेशी आर्मी का बना था अड्डा

लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। दिलकुशा क्षेत्र में हरे-भरे उद्यान के बीच स्थित दिलकुशा कोठी को देखकर कुछ ऐसा ही लगता है। वास्तव में इसे नवाबों के शिकार लॉज के रूप में बनवाया गया था। बाद में यह गर्मियों में रहने वाले घरों के तौर पर इस्तेमाल होने लगा। दिलकुशा बाग आज भी दिल बहलाने का मनोरम ठिकाना है।

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ऊंची-ऊंची गाथिक शैली की कोठियों के खंडहरों के साये में यह भव्यता का नायाब नमूना है। गदर में अंग्रेजों ने जैसे ही कोठी दिलकुशा को अपना ठिकाना बनाया कि हिंदूस्तानी क्रांतिकारियों ने इसकी ईंट से ईंट बजा दी और ये इमारतें चकनाचूर होने लगीं। दिलकुशा का बहुत सा भाग तो छावनी और नयी बस्तियों के पांव तले दब चुका है, फिर भी थोड़े से हिस्से को सजा संवार कर रखा गया है, जिसमें एक शिकारगाह के खंडहर और एक गोल बारादरी अब भी देखने को मिलती है।

दिलकुशा कोठी को नवाब सआदत अली खां के शासनकाल में ब्रिटिश मेजर गोरे ऑस्ले द्वारा बनाया गया था। इस इमारत की वास्तुकला डिजाइन में इंग्लैंड के नॉर्थम्बरलैंड के सिटॉन डेलावल हॉल के पैटर्न की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। दरअसल, सआदत अली खां अंग्रेजों के रहमोकरम पर नवाब बने थे। नवाब सआदत अली खां को खजान-ए-अवध से एक करोड़ पैंतीस लाख रुपये का सालाना हिस्सा कंपनी सरकार को देना पड़ता था। नवाब को जिंदगी भर यह खटकता रहा।

नवाब बेहद सादगी पसंद और कला प्रेमी इंसान थे। इन्होंने रेजीडेंसी से दिलकुशा तक महल और बगीचे बिछा दिए। टेढ़ी कोठी, लाल बारादरी, कोठी नूरबख्श, कंकर वाली कोठी, खुर्शीद मंजिल, चौपड़वाली घुड़साल, बादशाह मंजिल, खास मकाम और दिलकुशा बाग बनवाए। दिलकुशा कोठी में शिकार खेलने के लिए ऊंची मंजिल वाली एक मीनारनुमा कोठी का निर्माण भी किया गया, जिसके चारों ओर निशानेबाजी के लिए सादी इटालियन ढंग की खिड़कियां बनवायी गईं। यहां तमाम हिरन और जंगली जानवर पाल लिए गए थे। इस तरह दिलकुशा मन बहलाने और रोमांच का ठिकाना बन गया।

 

सआदत अली खां के बाद नसीरुद्दीन हैदर ने दिलकुशा को और सजाया संवारा। नसीरुद्दीन हैदर को अंग्रेजी रंग-ढंग और फिरंगी साथ का बड़ा शौक था। उन्होंने अपने फ्रेंच मेहमान मि. माट्स को अपने दरबार में ऊंचा ओहदा दे रखा था। कला की दुनिया में माट्स का बड़ा नाम था। पेंटिंग करने में और पश्चिमी संगीत में बेजोड़ था। माट्स को रमणीक वातारण देने के लिए दिलकुशा के महलों में बसा दिया गया। इन रंगीन झुरमुटों में बैठकर वह बादशाह की मर्जी की तस्वीरें पेंट करता रहता था। वह नसीरुद्दीन से तस्वीरों के मुंह मांगे दाम वसूल करता रहा।

1830 में एक अंग्रेज ने बादशाह नसीरुद्दीन हैदर और उनके नवाब वजीरों के सामने दिलकुशा में एक गुब्बारा उड़ाया था। यह घटना यहां के इतिहास में बेमिसाल है। इस तमाशे को लखनऊ वालों ने बड़े हैरत और दिलचस्पी से देखा था। उनके हरम की बेगमें भी सावन के महीने में यहां आकर रहा करती थीं। नसीरुद्दीन हैदर की अजीज बेगम कुदसिया महल अपने गर्भ की सुरक्षा के लिए चेहल्लुम के बाद बरसात के दिनों में इन महलों में आकर रही थीं।

नहीं है कोई आंगन

प राने राजाओं या नवाबों में घरों में खुलापन देखने को मिलता था। बावजूद इसके अजीब बात यह है कि दिलकुशा कोठी में कोई आंगन नहीं है।

 

1857 से पहले था विदेशी आर्मी का अड्डा

1857 भारतीय स्वतंत्रता विद्रोह के दौरान यह पूरा परिसर ब्रिटिश सैन्य गतिविधियों का केंद्र था। इसी परिसर में ब्रिटिश जनरल सर हेनरी हैवलाक ने 24 नवंबर 1857 को अंतिम सांस ली।


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