उत्तर प्रदेश के इस पुस्तकालय में मौजूद था तमाम प्रतिबंधित पुस्तकों का जखीरा lucknow news
मातृवेदी के सिपाही दम्मीलाल पांडेय ने मैनपुरी में खोला था मातृवेदी का क्रांतिकारी पुस्तकालय। पुस्तकालय में था क्रांतिकारी साहित्य का भंडार इसे पढ़कर नौजवान होते थे प्रेरित।
लखनऊ, (आशुतोष मिश्र)। वह 1920 का दौर था। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिला मुख्यालय से 27 किलोमीटर दूर आलीपुर खेड़ा गांव का शांति भवन पुस्तकालय नौजवानों को क्रांति की राह दिखा रहा था। जिले के इस पहले और इकलौते पुस्तकालय में उस दौर की तमाम प्रतिबंधित पुस्तकों का जखीरा था। बगावती तेवरों वाली किताबों से समृद्ध इस पुस्तकालय की स्थापना मातृवेदी के सिपाही दम्मीलाल पांडेय ने की थी।
राजस्थान, मध्यप्रदेश से लेकर तत्कालीन संयुक्तप्रांत के विभिन्न जिलों में सैकड़ों सदस्यों को क्रांतिकारी संगठन मातृवेदी से जोडऩे वाले दम्मीलाल पांडेय की तरह का काम उनका पुस्तकालय भी कर रहा था। यहां आने वाले नौजवान सशस्त्र क्रांति की राह पर बढ़ जाते थे। क्रांति की इस पाठशाला से पहले आलीपुर खेड़ा गांव में दाखिल होते ही बलिदानियों की स्मृतियों का मंदिर नजर आता है। यह दो मंजिला प्राचीन मकान दम्मीलाल पांडेय का घर है। इसकी दर-ओ-दीवार क्रांति की कहानियां कहती हैं। कोठी में क्रांतिकारियों के छिपने के लिए गुप्त तहखाना और सुरंग अब भी मौजूद है।
दो सौ मीटर लंबी इस सुरंग को देखने का संस्मरण बयां करते हुए मातृवेदी-बागियों की अमर गाथा के लेखक शाह आलम रोमांचित हो जाते हैं। यहां से कुछ दूरी पर शांति भवन है। हालांकि, वक्त के थपेड़े ने इस पर अपनी छाप छोड़ी है। इसके बाद भी पुस्तकालय की पुरानी इमारत क्रांति के गौरवशाली इतिहास से रूबरू कराती है। गांव में रहने वाले दम्मीलाल पांडेय के पौत्र अजय पांडेय के साथ मिलकर शाह आलम यहां शहीदों के सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी में हैं।
किशोरावस्था में ही बन गए क्रांतिकारी
दम्मीलाल पांडेय ने मैनपुरी गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ाई के दौरान ही क्रांति की राह पकड़ ली। आजादी की जंग में शरीक होते हुए जब तक वह आगरा कॉलेज में पढऩे पहुंचे, तब तक बहुत से नौजवानों को क्रांतिकारी बना चुके थे। उन्होंने गांव के पांच मित्रों को भी मातृवेदी संगठन से जोड़ा था।
मैनपुरी षडयंत्र में काटी सात साल की सजा
अंग्रेजी हुकूमत को खौफजदा करने वाले मैनपुरी षडयंत्र मामले में दम्मीलाल पांडेय की भी गिरफ्तारी हुई थी। उन्होंने इस केस में सात वर्षों की नारकीय सजा काटी थी। मातृवेदी से बलिदानियों को जोडऩे के लिए तमाम क्षेत्रों की यात्राएं करने वाले दम्मीलाल पांडेय की कहानी का जिक्रकरते हुए शाह आलम उनके पुत्र डॉ. ज्ञानेंद्र के हवाले से लिखते हैं कि आजादी के बाद भी अंतिम सांस (1955) तक दम्मीलाल पांडेय बेहतर समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहे।
अब खबरों के साथ पायें जॉब अलर्ट, जोक्स, शायरी, रेडियो और अन्य सर्विस, डाउनलोड करें जागरण एप