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स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र ने मच्छर को किया मजबूत

मलेरिया बड़े पैमाने पर न केवल लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है बल्कि जानलेवा साबित हो रहा है। वैज्ञानिक इसके लिए स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र को जिम्मेदार मानते हैं।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Thu, 20 Sep 2018 07:42 PM (IST)Updated: Fri, 21 Sep 2018 08:00 AM (IST)
स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र ने मच्छर को किया मजबूत
स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र ने मच्छर को किया मजबूत

लखनऊ, (रूमा सिन्हा)। मच्छर को कमजोर समझना बड़ी भूल साबित हुई है। मलेरिया नियंत्रण के  लिए स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र ने मच्छर को जहां मजबूत किया है। वहीं स्वास्थ्य महकमा मलेरिया से निपटने की तैयारी में विफल रहा। नतीजा यह है कि मलेरिया बड़े पैमाने पर न केवल लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है बल्कि जानलेवा साबित हो रहा है। वैज्ञानिक इसके लिए स्वास्थ्य विभाग के कमजोर होते तंत्र को जिम्मेदार मानते हैं।

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सीएसआइआर-केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआइ) के मॉलीक्यूलर स्ट्रक्चरल बायोलॉजी विभाग की सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. समन हबीब बताती हैं कि शाहजहांपुर, पीलीभीत व बरेली तराई क्षेत्र होने के कारण हमेशा से मलेरिया के गढ़ रहे हैं। यही वजह थी कि केंद्र सरकार द्वारा शाहजहांपुर में मलेरिया रिसर्च सेंटर की स्थापना की गई थी। यह सेंटर जमीनी स्तर पर काम करता था और मलेरिया प्रभावित लोगों के आंकड़े एकत्र करने के साथ-साथ रोकथाम के उपाय, जांचें आदि करता था। यह सेंटर बंद हो गया, जिसके बाद केंद्र सरकार के स्तर पर किसी तरह की निगरानी की व्यवस्था नहीं रह गई।

जांच जरूर होनी चाहिए

70 व 80 के दशक में हर जिले में जिला मलेरिया इकाई सक्रिय रहती थीं। इन इकाइयों में मलेरिया की जांच की जाती थी। स्टाफ ब्लड की स्लाइड बनाकर मात्र दो घंटे में ही मलेरिया की पुष्टि करने में सक्षम था। यह व्यवस्था भी धीरे-धीरे कमजोर होती गई। डॉ.हबीब कहती हैं कि यह सही है कि किट से जांच शत प्रतिशत सही आती है, लेकिन यदि किट उपलब्ध नहीं है तो भी जांच बंद नहीं होनी चाहिए। वह कहती हैं कि इकाई सर्वे में भी रुचि नहीं दिखाती। यह रवैया निहायत निराशाजनक है। 

मलेरिया के मामले छुपाना गलत

डॉ.हबीब बताती हैं कि वह कई दशकों से मलेरिया पर काम कर रहीं हैं। मलेरिया के इलाज के लिए सीडीआरआइ द्वारा विकसित दवा का ही इस्तेमाल किया जाता है। वह कहती हैं कि वाइवेक्स मलेरिया के मुकाबले फाल्सीपेरम मलेरिया ज्यादा खतरनाक होता है। इलाज में देर होने पर मरीज कोमा में जा सकता है, किडनी फेल हो सकती है, जिससे डेथ की संभावना बढ़ जाती है। जब यह पता है कि अगस्त-सितंबर में मलेरिया होता है तो कम से कम राज्य स्तर पर पहले से ही जांच किट मुहैया कराए जाने चाहिए थे, लेकिन स्वास्थ्य महकमा शायद इसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था। नतीजा यह हुआ कि मलेरिया ने सैकड़ों लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया।

नहीं बताए जाते सही आंकड़े

वह कहती हैं कि मलेरिया के सही आंकड़े भी नहीं बताए जाते। ओडिशा मे वर्ष 2013 के मुकाबले 2016 में मलेरिया तीन गुना तक बढ़ गया, लेकिन वहां पीएचसी-सीएचसी स्तर तक पर जांच किट उपलब्ध रहते हैं। यह कहना भी गलत है कि मलेरिया गायब हो रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फंडिंग नहीं होती और रिसर्च के साथ-साथ इससे निपटने के लिए पर्याप्त साधन नहीं उपलब्ध होते। यही नहीं, उत्तर प्रदेश में ही कालाजार के 65 मामले रिपोर्ट हुए हैं। इसलिए जरूरत नियंत्रण तंत्र को मजबूत करने की है।         


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