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गुस्से से प्यार का रिश्ता गहरा, जिस प्यार में गुस्सा नहीं वह बनावटी

गोमती नगर में आयोजित दैनिक जागरण के वार्तालाप के दौरान सिने गीतकार एवं लेखक मनोज मुंतशिर से गजल गायक डा. हरिओम ने की वार्ता।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sun, 23 Dec 2018 05:52 PM (IST)Updated: Sun, 23 Dec 2018 05:52 PM (IST)
गुस्से से प्यार का रिश्ता गहरा, जिस प्यार में गुस्सा नहीं वह बनावटी
गुस्से से प्यार का रिश्ता गहरा, जिस प्यार में गुस्सा नहीं वह बनावटी

लखनऊ, (दुर्गा शर्मा )। 20 साल पहले गौरीगंज (अमेठी) से निकले मनोज शुक्ला मुंबई पहुंचकर मनोज ‘मुंतशिर’ हो गए। गलियां, तेरे संग यारा, कौन तुझे यूं प्यार करेगा, मेरे रश्के कमर, मैं फिर भी तुमको चाहूंगा.. फिल्मी गीतों संग शोहरत की फेहरिस्त लंबी होती गई। बावजूद इसके जुबान, तहजीब और जमीन को नहीं छोड़ा। वह कहते हैं,

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सवाल इक छोटा सा था, जिसके पीछे, ये सारी जिंदगी बरबाद कर ली

भुलाऊं किस तरह वो दोनों आंखें किताबों की तरह जो याद कर ली।।

लेखक एवं गीतकार मनोज ‘मुंतशिर’ के इसी अंदाज-ए-बयां में मां और मुहब्बत संग महकती महफिल सजी। दैनिक जागरण वार्तालाप में गजल गायक डॉ. हरिओम ने उनकी किताब ‘मेरी फितरत है मस्ताना’ पर बात की। आयोजन गोमती नगर स्थित होटल नोवोटेल में हुआ। पहला सवाल उनके शुक्ला से मुंतशिर बनने की कहानी से जुड़ा था। मनोज मुंतशिर बोले, शायरों के तखल्लुस रखने की परंपरा रही है। सागर और साहिर तखल्लुस भी सोचा था, पर हर तखल्लुस आपस में टकरा रहा था। 1995 की सर्दियां थीं। चौक में दद्दन चाय की दुकान पर रेडियो पर शेर सुना,

‘मुंतशिर’ हम हैं तो रुखसार पे शबनम क्यों है, आईने टूटते रहते हैं, इसमें गम क्यों है।।

बस, वहीं से ‘मुंतशिर’ हो गए।

बात प्यार पर केंद्रित शायरी में गुस्से और निराशा की अधिकता को लेकर हुई। इस पर मनोज ‘मुंतशिर’ ने कहा, गुस्से से प्यार का रिश्ता गहरा है। जिस प्यार में गुस्सा नहीं, वह बनावटी है। वह बोले, प्यार में सिर्फ दो तरह के हादसे होते हैं। एक, जिसे हम चाहें, वो हमें ना मिले और दूसरा, जिसे हम चाहें वो हमें मिल जाए।

मुझपे दोनों हादसे गुजरे हैं। उन्होंने वह वाकया भी सुनाया जब किसी ने उनसे खत और फोटो वापस मांग लिए थे..।

आंखों की चमक, जीने की लहक, सांसों की रवानी वापस दे मैं तेरे खत लौटा दूंगा, तू मेरी जवानी वापस दे।।

(ये उसी वक्त लिखा था।)

बात प्यार के विस्तार के साथ आगे बढ़ी। डॉ. हरिओम ने पूछा दिल के टूटने और निराशा के अलावा भी दुनिया में कई मुद्दे हैं। इस पर लेखन के प्रश्न पर वो बोले, ये शर्म की बात है कि आज भी लोग भूख से मर रहे हैं। पहले खुलकर लिखा जाता था, आज असहिष्णुता का माहौल है। मैंने लिखा-

बच्चों के बस्तों में छुपकर अल्ला जाता है स्कूल मंदिर मस्जिद ढूंढें उसको, हम न करेंगे ऐसी भूल।।

प्रश्न हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग और भाषायी शुद्धता पर भी हुए। इस पर मुंतशिर बोले, जो समझ में आए उसी भाषा का प्रयोग होना चाहिए। फिर भी भाषायी अदब का लिहाज रहता है, क्योंकि :

जैसा बाजार का तकाजा है, वैसा लिखना अभी नहीं सीखा

मुफ्त बंटता हूं आज भी मैं तो, मैंने बिकना अभी नहीं सीखा

एक चेहरा है आज भी मेरा, वो भी कमबख्त कितना जिद्दी है

जैसी उम्मीद है जमाने को, वैसा दिखना अभी नहीं सीखा।।

मां-पिता के नाम शायरी

कार्यक्रम में मनोज मुंतशिर की मां प्रेमा शुक्ला और पिता शिव प्रताप शुक्ला भी मौजूद थे। मां के संघर्ष पर उन्होंने कहा,

मेरी नींदों में भी परियां आई हैं बादल के बिस्तर पर पे लेटा मैं भी हूं

तो क्या जो मेरे नाम रियासत नहीं कोई अपनी मां का राजा बेटा मैं भी हूं।।

पिता के नाम भी शायरी की,

हजारों मुश्किलों से लड़ रहा हूं मैं अकेला ही दुआएं साथ हों जिसके लश्कर नहीं लगता

मेरे बाबूजी बूढ़े हैं मगर अब भी ये आलम है वो मेरे पास होते हैं तो मुझको डर नहीं लगता।।

संघर्ष के दिनों में पत्‍नी नीलम के सहयोग की भी बात की।

मैं खंडहर हो गया पर तुम न मेरी याद से निकले

तुम्हारे नाम के पत्थर मेरी बुनियाद से निकले।।

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