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इक रवायत जो इक्कों पर करती थी सफर, वक्त ने इसे भी छोड़ दिया पीछे

लखनऊ ने दुनिया की चाल से चाल मिलाई और इक्के-तांगे कहीं पीछे छूट गए। दैनिक जागरण आपको लखनऊ की इसी रवायत से जुड़े इतिहास के बारे में बता रहा है।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Thu, 28 Feb 2019 05:40 PM (IST)Updated: Sat, 02 Mar 2019 08:16 AM (IST)
इक रवायत जो इक्कों पर करती थी सफर, वक्त ने इसे भी छोड़ दिया पीछे
इक रवायत जो इक्कों पर करती थी सफर, वक्त ने इसे भी छोड़ दिया पीछे

 लखनऊ,[ऋषि मिश्र]। सर आर्थर कॉनन डायल के अमर किरदार शरलॉक होम्स की रोमांचकारी कहानियों को पढ़ते हुए जेहन में लंदन की सड़कों पर दौड़ती बग्घी के चित्र तैर जाते हैं। सर आर्थर जब अपने उपन्यास में दृश्यों को रचकर अमर कर रहे थे, ठीक उसी समय लखनऊ की सड़कों पर इक्के और तांगे वाले भी कुछ ऐसे ही परिदृश्य की सर्जना कर रहे थे।

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लखनऊ का न सिर्फ पूरा यातायात इक्के और तांगों पर आश्रित था, बल्कि कोचवानों की बौद्धिकता, रसप्रियता और शहरी जीवन में प्रत्यक्ष दखल इन्हें अवधी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बना रहा था। समय बदला। लखनऊ ने दुनिया की चाल से चाल मिलाई और इक्के-तांगे कहीं पीछे छूट गए। सत्तर के दशक में जहां चार हजार तांगे थे, आज शहर में गिनकर 30 तांगे बचे हैं, वे भी परिवहन का हिस्सा नहीं हैं। विकास के अंधड़ में इन्हें पर्यटन की प्राणवायु ने बमुश्किल जिंदा रखा हुआ है।

'दास्तांगोई थी, गजलें थीं चलती सड़कों पर'

' इक रवायत थी जो इक्कों पे सफर करती थी'

बड़े इमामबाड़े के ठीक सामने तांगे पर बैठे सवारी की प्रतीक्षा करते इश्तियाक कहते हैं, शहर में मेट्रो आ गई साहब, तांगे पर अब कौन चढऩा चाहता है। सवारी तो सवारी, हमारे बच्चे ही इस पेशे में नहीं आना चाहते। उनका भी दोष नहीं, दिन भर में इतनी भी कमाई नहीं हो पाती कि घोड़ी का चारा-पानी हो सके, परिवार कैसे चलेगा।  

आजादी के बाद भी करीब 30 साल तक तांगे अच्छे खासे चलन में थे। चारबाग, चिडियाघर, अमीनाबाद, हजरतगंज, डालीगंज और पुराने शहर के अलग-अलग इलाकों के लिए तांगे चला करते थे। इक्के-तांगे वालों की सवारियों से बातचीत भी काफी दिलचस्प हुआ करती थी। इनकी किस्से-कहानियां पूरे अवध में मशहूर थीं। 

दिल्ली वाले मिसरा भेजते थे, कोचवान शेर पूरा कर देते थे
इतिहासकार योगेश प्रवीन बताते हैं कि एक समय था जब अचानक लखनऊ के शायरों का नाम पूरे देश में छा गया। दिल्ली के शायरों को इससे जलन होने लगी। लखनवी शायरों को नीचा दिखाने के लिए दिल्ली से अजीबोगरीब मिसरे लिखकर भेजे जाने लगे। कमाल यह कि लखनऊ के तांगे और इक्के वाले ही शेर पूरा कर देते थे। मिसाल के तौर पर दिल्ली से मतला आया था कि शराब सींकों पे है, कबाब शीशे पे डाली है... जबकि होता इसका उल्टा है। ये मतला जब लखनवी तांगे वाले ने सुना तो उसने शेर कहा, किसी के आने के बाद साकी का ये हाल है कि, शराब सींकों पे है, कबाब शीशे पे डाली है...। अगला मतला आया कि, रग ए गुल (फूलों का रेशा) से बुलबुल के पर बांधते हैं... इस पर जो जवाब कोचवान ने दिया उसका कोई तोड़ नहीं था। उसने इसे मिसरा बताया और कहा कि मतला हमसे सुनो... 

सुना है कि दिल्ली में ऐसे भी गधे हैं जो,

रग ए गुल से बुलबुल के पर बांधते हैं।

अभी भी कई जगह हैं इक्का-तांगा स्टैंड
योगेश प्रवीन बताते हैं, इक्का प्राचीनकाल के रथ का छोटा स्वरूप था। इसी तरह से अंग्रेजों के समय साहबों की बग्घी ने बाद में तांगे का रूप लिया। आज भी अमीनाबाद में झंडे वाला पार्क के पास, डालीगंज, चौक, चारबाग में इक्का-तांगा स्टैंड के अवशेष हैं। उन्होंने बताया कि इक्के वाले जरा इक्के का पर्दा हटा... गीत जब संगीतकार मदन मोहन ने आकाशवाणी पर सुना तो उन्होंने इसकी धुन पर झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में... गीत की धुन बनाई थी।


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