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फूट डालो और राज करो की नीति के लिए बड़ा धक्का था लखनऊ समझौता

लखनऊ समझौते के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही दलों ने एकजुट होकर चलाया इस समझौते में एनी बेसेंट, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sat, 26 Jan 2019 04:02 PM (IST)Updated: Sun, 27 Jan 2019 09:05 AM (IST)
फूट डालो और राज करो की नीति के लिए बड़ा धक्का था लखनऊ समझौता
फूट डालो और राज करो की नीति के लिए बड़ा धक्का था लखनऊ समझौता

लखनऊ, जेएनएन। 26 से 30 दिसंबर 1916 को लखनऊ में कांग्रेस का 31वां अधिवेशन हुआ था। उदारवादी नेता अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में हुए इस अधिवेशन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच कांग्रेस लीग समझौता हुआ था। जिसे हम लखनऊ समझौता या लखनऊ पैक्ट के नाम से जानते हैं।

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नरम दल और गरम दल के बीच हुआ यह अधिवेशन जहां एक ओर ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति के लिए बड़ा धक्का तो था, लेकिन दूसरी ओर इसने न तो पूर्ण हिंदू-मुस्लिम एकता को स्थापित किया और न ही सांप्रदायिक विचारधारा और शक्तियों पर कोई निर्णायक चोट की। यही वजह थी कि कुछ साल तो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों दलों ने मिलकर एक साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, लेकिन वर्ष 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन के साथ ही लखनऊ समझौता भंग हो गया और दोनों दल अलग-अलग हो गए।

मुस्लिम लीग ने अपना पुराना रास्ता अपना लिया और दो वर्ष बाद कांग्रेस के बेलगांव अधिवेशन में पृथक हो गई। मशहूर इतिहासकार डॉ. रमेश चंद्र मजूमदार ने लखनऊ समझौते की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा था कि 1916 में कांग्रेस द्वारा लखनऊ समझौते करने के निर्णय ने वह नीव डाली जिसके ऊपर 30 वर्ष बाद पाकिस्तान का निर्माण किया गया। लखनऊ समझौते ने भावी भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता वाद के उदय का मार्ग प्रशस्त किया था।

अलगाव पराजय, एकता जीत

अधिवेशन में अध्यक्षता कर रहे अंबिका चरण मजूमदार ने कहा था कि दस वर्षों से सुखद अलगाव और गलतफहमी के कारण बेवजह के विवादों में भटकने के बाद भारतीय राष्ट्रीय दल के दोनों खेमों ने अब महसूस किया है कि अलगाव उनकी पराजय है और एकता उनकी जीत। अब भाई-भाई फिर मिल गए हैं।

तीसरी पार्टी से लडऩे के लिए एकता सबसे जरूरी

लखनऊ समझौते पर मुस्लिम लीग को अधिक तवज्जों देने के आरोप पर लोकमान्य तिलक ने कहा था कि कुछ महानुभावों का यह आरोप है कि हिंदू अपने मुस्लिम भाईयों को ज्यादा तवज्जों दे रहे हैं। मैं कहता हूं कि यदि स्वशासन का अधिकार केवल मुस्लिम समुदाय को दिया जाए तो मुझे कोई एतराज नहीं होगा, राजदूतों को यह अधिकार मिले तो परवाह नहीं। हिंदुस्तान में किसी भी समुदाय को यह अधिकार दे दिया जाए हमें कोई ऐतराज नहीं होगा। मेरा यह बयान समूची भारतीय राष्ट्रीय भावना का प्रतिनिधित्व करता है। जब भी आप तीसरी पार्टी से लड़ रहे हैं, तो सबसे जरुरी होती है आपसी एकता, जातीय एकता, धार्मिक एकता और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं की एकता।

स्वशासन सहित 19 सूत्री ज्ञापन तैयार

लखनऊ समझौते में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने लखनऊ में वार्षिक अधिवेशन का आयोजन किया था। इन दोनों दलों ने प्रथम रुप से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त योजना के संबंध में प्रस्ताव पारित किए और संयुक्त कार्यक्रम के आधार पर राजनीति क्षेत्रों में एक दूसरे के साथ सहयोग करने के संबंध में समझौता किया। समझौते के तहत 19 सूत्री मांगों का ज्ञापन तैयार किया गया।

इसमें ब्रिटिश सरकार से भारत को शीघ्र अपना स्वशासन प्रदान करने, प्रांतीय विधान परिषद का विस्तार करने और इन वितरित परिषदों में निर्वाचित सदस्य को अधिक प्रतिनिधि देने के संबंध में मांग की गई थी। साथ ही भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति करने का अधिकार भारत सरकार में निहित होना चाहिए। भारतीय सेना और नौसेना में भारतीय लोगों की नियुक्ति की जाए। लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की भी औपचारिक रुप से स्वीकार कर लिया था, जो मुस्लिम लीग के लिए सकारात्मक उपलब्धि थी।

समझौते की विफलता का कारण

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम ली ने एक संयुक्त मंच का गठन तो कर लिया, लेकिन इस समझौते के प्रावधानों के निर्धारण में दूरदर्शिता का पूर्ण अभाव था। कांग्रेस द्वारा लीग की प्रस्तावित सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को स्वीकार कर लिए जाने से एक समान मंच तथा राजनीति की दो अलग-अलग दिशाओं का युग शुरू हुआ। यह प्रावधान द्विराष्ट्र सिद्धांत की अवधारणा का अंकुर था। लखनऊ समझौते में कांग्रेस व लीग के नेताओं ने आपस में एकता की व्यवस्था तो कर ली थी, पर हिंदू और मुसलमानों दोनों ही संप्रदाय के लोगों को एकजुट कर साथ लाने का कोई खास प्रयास नहीं किया गया।


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