पिछले 11 साल से मिसाल पेश कर रहा ये शख्स, आज लोग करते हैं फॉलो
केजीएमयू और बलरामपुर अस्पताल में भोजन सेवा देते हैं विशाल, कैंसर व गंभीर बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के तीमारदारों को खिलाते हैं खाना।
लखनऊ, [अजय शुक्ला]। बलरामपुर अस्पताल की न्यू ओपीडी से थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो परिसर में ही बाएं हाथ पर बरगद का एक विशाल वृक्ष दिखेगा। कहीं जमीन को छूती तो कहीं पुन: उभर कर शाखों से गुंथी टहनियां, कुदरत के अद्भुद शिल्प का दीदार कराती हैं। बस, कुछ देर खड़े रहिए, खड़खड़ाते पत्तों और झूलती शाखों से झर रोओं को छूकर गुजरती हवा सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है। यही सकारात्मकता विशाल सिंह से मिलकर भी अनुभूत होती है।
इसी बरगद से सटे प्रांगण में दोपहर साढ़े 12 बजे के बाद विशाल परमात्मा स्वरूप निराकार ईश्वर और उसके अणु रूप प्रत्येक मनुष्य के अंतर में विद्यमान जीवात्मा के बीच संवाद साधते टोली के सदस्यों के साथ कैंसर और दूसरी क्रॉनिक बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के तीमारदारों को भोजन परोसते मिल जाएंगे।
विशाल आत्मा में ही परमात्मा खोजते हैं और इसी खोज ने उन्हें बीमारों और तीमारदारों का मसीहा बना दिया है। विशाल शहर के बलरामपुर अस्पताल व केजीएमयू में पिछले 11 साल से भोजन सेवा दे रहे हैं। पहले वे घर से भोजन बनाकर अस्पतालों के बाहर तीमारदारों को बांटा करते थे। उनकी नि:स्वार्थ सेवा और लगन देख केजीएमयू प्रशासन ने न्यूरोलोजी विभाग के पास एक हाल दे दिया। इसके बाद विशाल ने अपने पिताजी के नाम पर विजयश्री फाउंडेशन (प्रसादम सेवा) बनाकर अन्य लोगों को भी जोड़ा। हाल ही में बलरामपुर अस्पताल में भी सेवा की शुरुआत की और अब लोहिया संस्थान में भी ऐसी ही सेवा की शुरुआत करने जा रहे हैं। केजीएमयू की तरह बलरामपुर अस्पताल ने भी बरगद के पेड़ से लगा हाल और प्रांगण उन्हें उपलब्ध कराया है।
संघर्ष ने सिखाया शिष्टाचार
संघर्ष के दिनों में वह वक्त भी आया जब बासी और बचा भोजन खाकर भी गुजारा किया। यही वजह है कि प्रसादम सेवा में वह साफ सुथरे किचन, आरओ के पानी और भोजन में दाल, चावल, चपाती, मिष्ठान आदि की शुद्धता पर पूरा जोर देते हैं और इससे भी ज्यादा ध्यान देते हैं, प्रेम पूर्वक परोसने में। विशाल ने अब लोहिया संस्थान में सेवा शुरू करने के साथ वृद्धों और बच्चों के लिए आश्रय स्थल बनाने की दिशा में कदम भी बढ़ा दिए हैं। वह कहते हैं-मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।
ऐसे होती है सेवा
विशाल समाज के विभिन्न सक्षम वर्ग के लोगों से जुड़कर उन्हें मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में दान के बजाए दूरदराज से राजधानी के अस्पतालों में आए तीमारदारों को भोजन कराने के लिए प्रेरित करते हैं। कोई एक दिन के भोजन की व्यवस्था करता है तो कोई विभिन्न अवसरों पर। वह सभी सेवादारों के परिवार के जन्मदिन, विवाह की तारीख आदि का ब्योरा रखते और इस अवसर पर तीमारदारों को भोजन कराने को कहते हैं। इस तरह सेवादारों की एक श्रृंखला तैयार हो जाती है।
पीड़ा से पनपा प्रेम
विशाल को इसकी प्रेरणा उस वक्त मिली जब उनके पिता गुड़गांव के एक अस्पताल में भर्ती थे। इलाज में सबकुछ चला गया, लेकिन पिता जी नहीं बचे। उस समय बहुत छोटी उम्र थी। विशाल कहते हैं कि अब लगता है कि अगर थोड़ा पैसा होता तो पिता जी कुछ दिन और जी पाते। पिता के न रहने पर वह लखनऊ आ गए। यहां छोटे-छोटे काम से शुरुआत की। चाय बेची, साइकिल स्टैंड पर टोकन लगाया, फिर कैटरिंग का काम किया और मेहनत के बल पर जीविका के साधन जुटा लिए।