After Ayodhya Verdict : देवरस, रज्जू भैया और सिंहल के दिमाग की उपज था मंदिर आंदोलन
After Ayodhya Verdict मंदिर आंदोलन के आगाज से लेकर अंजाम तक के अहम गवाह और हिंदुत्व के आतिशी प्रवक्ता रहे विनय कटियार से खास बातचीत
अयोध्या [रघुवर शरण]। मंदिर आंदोलन 1983 में तत्कालीन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस, संघ के शीर्ष विचारक प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और अशोक सिंहल के दिमाग की उपज था। सिंहल उन दिनों संघ के प्रखर प्रचारक की भूमिका से निवृत्त होकर दिल्ली को केंद्र बना कर विश्व हिंदू परिषद का काम देख रहे थे। यह कहना है, दुत्व की उत्साही ब्रिगेड बजरंगदल के संस्थापक संयोजक और मंदिर आंदोलन के आतिशी प्रवक्ता रहे विनय कटियार का। तीन बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे कटियार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष से लेकर पार्टी के केंद्रीय पदाधिकारी भी रह चुके हैं। यह जानना रोचक है कि वे मंदिर आंदोलन के आगाज से लेकर अंजाम तक पहुंचने के अहम गवाह हैं। इस दौरान उन्होंने मंदिर आंदोलन के कितने रंग देखे, इस बावत जागरण ने उनसे विस्तार से वार्ता की, जो इस प्रकार है-
सवाल : मंदिर आंदोलन से जुड़ाव कैसे हुआ?
जवाब : किशोरावस्था से ही विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव था और आपातकाल के विरोध की सक्रियता थमने और आपातकाल हटने के साथ संघ में आ गया। अशोक ङ्क्षसहल उन दिनों प्रभावी प्रचारक की भूमिका में थे और उन्हीं की प्रेरणा से प्रचारक जीवन अंगीकार कर चुका था। संघ की ही योजना के अनुसार ङ्क्षहदू जागरण मंच का गठन किया गया और मुझे इसका प्रभार सौंप दिया गया। यह 1983 का दौर था। इसी बीच तत्कालीन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस, संघ के ही शीर्ष विचारक प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और अशोक सिंहल ने रामजन्मभूमि मुक्ति के प्रयास की परिकल्पना की। इस परिकल्पना को साकार करने के लिए मुझे लखनऊ से अयोध्या भेजा गया।
सवाल : अयोध्या आकर आपने किस दायित्व का निर्वहन किया?
जवाब : मुझे संतों से मिलने के लिए अयोध्या भेजा गया था। सबसे पहले दिगंबर अखाड़ा में रामचंद्रदास परमहंस से भेंट की, वे 1950 से ही सिविल कोर्ट में वाद दायर कर रामलला के पूजन-दर्शन की लड़ाई लड़ रहे थे। इस लड़ाई में कोई और व्यक्ति या संगठन उन्हें सहयोग देगा, यह प्रस्ताव सुनते ही वे बरस पड़े। हालांकि कुछ ही देर बाद उनका आक्रोश थमा और वे इस बात के लिए राजी हुए कि रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए जो कहोगे करूंगा-जहां ले चलोगे चलूंगा।
सवाल : इसके बाद मंदिर की दावेदारी से जुड़ा सिलसिला कैसे आगे बढ़ा?
जवाब : परमहंस जी और कुछ संतों का आशीर्वाद लेकर मैं वापस लखनऊ लौटा और अयोध्या के संतों के रुख से शीर्ष नेतृत्व को परिचित कराया। उन सभी ने मंदिर के आग्रह को आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाने का निश्चय किया। आंदोलन के प्रति समर्थन की ²ष्टि से कानपुर के फूलबाग मैदान में सभा की गई। सभा को रज्जू भैया, तत्कालीन गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ, अशोक सिंहल, राममंदिर के ही लिए कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश सरकार की मंत्रि परिषद से इस्तीफा देने वाले दाऊदयाल खन्ना जैसे लोगों ने संबोधित किया। फूलबाग में उमड़ी भीड़ और राममंदिर के प्रति लोगों का जोश देखकर लोग गदगद हुए और मंदिर आंदोलन की कामयाबी का विश्वास जगा। इसके बाद रामनगरी से लगे पूर्वी उत्तरप्रदेश में मंदिर को लेकर इन नेताओं की सफल सभाएं होने लगीं।
सवाल : मंदिर आंदोलन के अनेक सोपान हैं, आप इन्हें किस रूप में देखते हैं?
जवाब : मेरे लिए मंदिर आंदोलन का एक-एक पल यादगार है पर कुछ ऐसे सोपान हैं, जो भुलाए नहीं भूलते। फूलबाग की सभा उनमें से एक है ही। 1984 में रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए चलीं रथयात्राएं जनकपुर से अयोध्या पहुंचीं, तो उनके स्वागत में सरयू पुल पर जैसे पूरी अयोध्या उमड़ पड़ी। उसी वर्ष सात अक्टूबर को सरयू तट पर रामजन्मभूमि मुक्ति का संकल्प भी प्रबल उत्साह का संचार करने वाला था। मंदिर की मुक्ति का संकल्प लेने के लिए रामभक्तों का सैलाब उमड़ा था। 1989 में शिलान्यास और 90 की कारसेवा मंदिर आंदोलन की ताकत परिभाषित करने वाली रही।
सवाल : 90 की कारसेवा के दौरान बड़ी संख्या में कारसेवक हताहत भी हुए थे। आंदोलन के इस मोड़ पर आपने कैसा महसूस किया?
जवाब : लगा कि आंदोलन की कामयाबी के लिए लंबा और राष्ट्रव्यापी संघर्ष करना होगा। अशोक सिंहल नायक बनकर उभरे और उन्हीं के नेतृत्व में हम सब हुतात्मा कारसेवकों से प्रेरित हो और ²ढ़ता से आगे बढ़े।
सवाल : छह दिसंबर 1992 को ढांचा कैसे ध्वंस हुआ, जबकि ढांचा ध्वंस आंदोलन के एजेंडे में ही नहीं था?
जवाब : छह दिसंबर 1992 को बुलाए गए रामभक्तों को रामजन्मभूमि के ही निकट प्रतीकात्मक कारसेवा करनी थी उनमें से बहुतों का जोश आसमान छू रहा था। ढांचा की ओर बढ़े कारसेवकों को नियंत्रित करना संभव नहीं रह गया था।
सवाल : ढांचा ध्वंस के बाद आंदोलन के कुछ कर्मकांड को छोड़ कर मंदिर आंदोलन अदालत के भरोसे आ अटका। इस अवरोह को किस रूप में देखते हैं?
जवाब : यह अवरोह नहीं हमारी योजना का हिस्सा था, हम तय कर चुके थे कि ध्वंस के बाद मंदिर निर्माण आंदोलन से संभव नहीं है और इसके लिए सरकारें बदलनी होंगी।
सवाल : अब तो मंदिर बनने की बारी आ गई है और भव्यतम को लेकर उस मॉडल पर सवाल खड़ा किया जा रहा है, जिसके अनुरूप तीन दशक से शिलाएं गढ़ीं जा रही हैं?
जवाब : मंदिर निश्चित रूप से भव्यतम बनना चाहिए। निर्धारित मॉडल के अनुरूप मंदिर बनाने के बाद भी पूरे परिसर को भव्यतम बनाने की ढेर सारी संभावनाएं हैं।
सवाल : सुप्रीमकोर्ट ने मंदिर निर्माण के लिए जिस शासकीय न्यास के गठन का आदेश दिया है, उसके स्वरूप को लेकर मची आपा-धापी पर क्या कहना चाहेंगे?
जवाब - कहीं कोई आपा-धापी नहीं है और शासकीय न्यास के स्वरूप को लेकर सभी आश्वस्त हैं।