श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर दो सितंबर को जयंती योग, रोहिणी और अष्टमी का अनूठा मिलन
सोलह कलाओं से युक्त भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी और रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। इस कारण इस तिथि को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहा गया।
वाराणसी (जेएनएन)। सोलह कलाओं से युक्त भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी और रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। इस कारण इस तिथि को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहा गया। इस बार प्रभु का जन्मोत्सव दो और तीन सितंबर को मनाया जाएगा। पहले दिन गृहस्थजन तो दूसरे दिन रोहिणी मतावलंबी वैष्णवजन प्रभु जन्म का व्रत-उत्सव पर्व मनाएंगे। अष्टमी तिथि दो सितंबर की शाम 5.08 बजे लग रही है जो तीन सितंबर को दोपहर 3.28 बजे तक रहेगी। इसमें रोहिणी नक्षत्र का साथ दो सितंबर की शाम 6.29 बजे से तीन सितंबर की शाम 5.34 बजे तक रहेगा। ऐसे में दो की रात 12 बजे प्रभु जन्म के समय अष्टमी तिथि व रोहिणी नक्षत्र का अद्भुत संयोग जयंती योग बनाएगा।
संयोग से अर्द्धरात्रि में जयंती योग
काशी विद्वत परिषद के संगठन मंत्री ख्यात ज्योतिषाचार्य पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार अष्टमी व रोहिणी नक्षत्र के अर्द्धरात्रि में संयोग से जयंती योग बनता है जो कम ही देखने में आता है। शास्त्रों में कहा गया है कि भाद्रपद कृष्ण पक्ष को रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि अर्द्धरात्रि में हो तो उसे श्रीकृष्ण जयंती कहते हैं। यह तिथि समस्त पापों को हरने वाली होती है। इस दिन व्रत रह कर प्रभु की बाल रूप झांकी सजानी चाहिए। दूसरे दिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का पारन किया जाता है।
पूजन विधान
श्रीकाशी विद्वत परिषद के मंत्री डा. रामनारायण द्विवेदी के अनुसार यह सर्व मान्य व पापघ्न व्रत बाल, कुमार, युवा, वृद्ध सभी अवस्था वाले नर-नारियों को करना चाहिए। इससे पापों की निवृत्ति व सुखादि की वृद्धि होती है। व्रतियों को उपवास की पूर्व रात्रि में अल्पाहारी व जितेंद्रिय रहना चाहिए। तिथि विशेष पर प्रात: स्नानादि कर सूर्य, सोम (चंद्रमा), पवन, दिग्पति (चार दिशाएं), भूमि, आकाश, यम और ब्रह्मï आदि को नमन कर उत्तर मुख बैठना चाहिए। हाथ में जल- अक्षत-कुश लेकर मास-तिथि-पक्ष का उच्चारण कर 'मेरे सभी तरह के पापों का शमन व सभी अभिष्टों की सिद्धि के लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत करेंगे' का संकल्प लेना चाहिए।
उत्सव-अनुष्ठान
ज्योतिषाचार्य पं. प्रसाद दीक्षित के अनुसार दोपहर में काले तिल के जल से स्नान कर माता देवकी के लिए सूतिका गृह नियत कर उसे स्वच्छ व सुशोभित करते हुए सूतिकापयोगी सामग्री यथाक्रम रखना चाहिए। सुंदर बिछौने पर अक्षतादि मंडल बनाकर कलश स्थापना और सद्य: प्रसूत श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। रात में प्रभुजन्म के बाद जागरण व भजन का विधान है। इस व्रत-उत्सव को करने से पुत्र की इच्छा रखने वाली महिला को पुत्र, धन की कामना वालों को धन, यहां तक कि कुछ भी पाना असंभव नहीं रहता। अंत में श्रीकृष्ण के धाम वैकुंठ की प्राप्ति होती है।