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देश के पूर्वाचल के विकास और वैभव की नई पटकथा स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हो रही

अनुमान है कि काशी में 15 लाख दीप घाटों से लेकर गंगा की गोद तक झिलमिलाए। संख्याओं के अंतर के साथ देशभर के नदी तट इसी रूप में आलोकित हुए और एक नया संदेश दे गए-बूझने समझने और भविष्य की राह तलाशने के लिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 07 Dec 2020 12:45 PM (IST)Updated: Mon, 07 Dec 2020 12:45 PM (IST)
देश के पूर्वाचल के विकास और वैभव की नई पटकथा स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हो रही
देव दीपावली के अवसर पर काशी में गंगा की गोद में झिलमिलाते दीप। फाइल उत्तर प्रदेश

लखनऊ, राजू मिश्र। सनातन धर्म और संस्कृति की यह अनूठी विशिष्टता है कि इसकी परंपराओं में इहिलोक तथा परलोक दोनों का समान चिंतन मिलता है। यही कारण है कि अन्य संस्कृतियों की तुलना में यह अपेक्षाकृत अधिक जीवंत प्रतीत होती है। आध्यात्मिक ही नहीं, भौतिक जगत में भी कल्याणकारी, जिजीविषा को जगाने और सकारात्मक संकल्पों के लिए प्रेरित करने वाली। दीपावली से देव दीपावली तक, अयोध्या से काशी तक नवंबर मास का उत्तरार्ध इस विशिष्टता को परिभाषित करता दिखा। कोरोना काल में असंख्य गतिविधियों के निषेध और अवसादपूर्ण वातावरण में जिस प्रकार अयोध्या में छह लाख से अधिक दीपों के प्रकाश ने अंधकार को ललकारा वह स्वत: ही कीर्तिमान बन गया।

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अयोध्या से लौ उठी तो कार्तिक पूर्णिमा पर काशी भी ऐसे ही प्रकाश पर्व से आलोकित हुई। अवसर था देव दीपावली का। पौराणिक मान्यता है कि देवताओं के उत्थान के लिए जब शिव ने असुरों का संहार कर देवलोक को पुन: प्रतिष्ठित किया तो देवताओं ने काशी में असंख्य दीप प्रज्वलित कर दीपावली मनाई। दीपावली की ही तरह देव दीपावली का भी संदेश है, असत्य पर सत्य की विजय का उल्लास, विषाद के चरमोपरांत जीवन का प्रसाद, प्रमाद की शिथिलता पर आह्लाद की ऊर्जा का संचार।

मनीषियों ने अपनी-अपनी तरह से विवेचना की है, किंतु सामान्य समझ के अनुसार धर्म, समाज और अर्थनीति राजनीति के अनिवार्य घटक हैं। इनकी उपेक्षा कर राजनीति को कभी लोक कल्याणकारी नहीं बनाया जा सकता है। दीपावली और देव दीपावली के मर्म को जिस तरह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने समझा और उसे जनकल्याण के माध्यम रूप में प्रतिष्ठित करने का काम किया, वह भविष्य के राजनीतिक व्यक्तियों और संस्थाओं के लिए मार्गदर्शक रहेगी। दीपोत्सव के बहाने ही सही (राम मंदिर की पुन: प्रतिष्ठा की आशा से उपजी आस्था सहित) अयोध्या वर्षो से उपेक्षित रहे अवध और प्रदेश के तटवर्ती हिमालयी क्षेत्र के एक बड़े भूभाग के विकास की धुरी बनती नजर आ रही है। प्रदेश के तीन मंडलों (फैजाबाद, देवीपाटन और लखनऊ) के जिले अयोध्या के प्राचीन या प्रचलित मुहावरे में कहें तो त्रेताकालीन आभामंडल से आलोकित हो रहे हैं।

जब पहला स्वच्छता सर्वेक्षण हुआ तो अयोध्या के सीमावर्ती जनपद गोंडा को देश के सबसे गंदे शहर का अपमान ङोलना पड़ा। तब गोंडा के प्रवासी लोग बाहर अपनी पहचान पड़ोसी शहर अयोध्या से जोड़कर इसलिए बताते थे कि उन्हें भी गंदे शहर का गंदा नागरिक न मान लिया जाए। अयोध्या से कम से कम पवित्रता का बोध तो होता है। आज स्थिति भिन्न है। पवित्रता का यह बोध आज विकास का भी यथार्थ है। दीपोत्सव के बहाने अयोध्या ने अपनी जो पहचान बनाई उसने तीर्थ-पर्यटन के कारोबार से लाखों रोजगार का तात्कालिक सृजन ही नहीं किया, भविष्य के लिए भी बड़ी संभावनाओं के द्वार खोल दिए। मिट्टी के दीपकों के बहाने कुंभकार समाज में न जाने कितने लोगों की आजीविका को पंख मिल गए। यह स्थायी भाव की दीपावली है, जो प्रदेश में धर्म, अर्थ और समाजनीति के जानकार समझ रहे हैं।

अयोध्या और दीपावली के संदर्भ में उल्लिखित तथ्य और उनके प्रभाव काशी और देव दीपावली पर कहीं अधिक व्यापक स्वरूप में प्रकट होते हैं। यह पहला अवसर है जब काशी की देव दीपावली में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए। या, यूं भी कह सकते हैं कि कोई प्रधानमंत्री शामिल हुआ। 135 देशों ने दृश्य-श्रव्य माध्यम से पहली बार काशी का यह अलौकिक और आलोकित वैभव देखा।

हमने जिस सनातन संस्कृति की चर्चा प्रारंभ में की है, वह किसी प्रदर्शन से पूर्ण नहीं होती, बल्कि उसकी अन्यान्य विशिष्टिताओं के यथार्थ में सार्वभौमिक और सर्वकालिक सिद्धांतों के रूप में व्याख्यायित होने से संपूर्ण होती है। या पुन: पुन: प्रतिपादित होती है। काशी के वैभव की पुनर्प्रतिष्ठा के साथ ही सिर्फ उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल ही नहीं, बल्कि देश के पूर्वाचल के विकास और वैभव की नई पटकथा या पृष्ठभूमि तैयार होती स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हो रही। 

[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]


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