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प्रासंगिक: कायस्थों के जेपी, ठाकुरों के प्रताप और ब्राह्मणों के परशुराम

सत्य यह कि समाज ही गलत है। नेता किसी टापू पर नहीं उगते पर हां, समाज की कमियों को अपने हित में भुनाले की कला बखूबी जानते हैं। समाज की खामियों को ही समाज के शोषण का जरिया बनाते हैं।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sun, 14 Oct 2018 02:11 PM (IST)Updated: Sun, 14 Oct 2018 02:11 PM (IST)
प्रासंगिक: कायस्थों के जेपी, ठाकुरों के प्रताप और ब्राह्मणों के परशुराम
प्रासंगिक: कायस्थों के जेपी, ठाकुरों के प्रताप और ब्राह्मणों के परशुराम

लखनऊ [आशुतोष शुक्ल]। कृपया इस शीर्षक पर गौर करें। क्या यह उलट कर भी हो सकता था? ठाकुरों के जेपी, कायस्थों के परशुराम और ब्राह्मणों के राणा प्रताप? नहीं हो सकता। समाज कहेगा जातिवाद बढ़ाने के लिए नेता दोषी हैं और नेता समाज की गलती निकालेंगे।

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सत्य यह कि समाज ही गलत है। नेता किसी टापू पर नहीं उगते पर हां, वे समाज की कमियों को अपने हित में भुना ले जाने की कला बखूबी जानते हैं। वे समाज की खामियों को ही समाज के शोषण का जरिया बनाते हैं।

दो दिन पहले राजधानी लखनऊ में फिर यही जातिवाद खलबलाया। आयोजन स्थल था समाजवादी पार्टी का दफ्तर। कार्यक्रम जयप्रकाश नारायण की जयंती और बैनर कायस्थ समाज का। प्रकांड विद्वान और प्रखर वक्ता डा. राममनोहर लोहिया का समाजवाद जाति के पक्ष में बहुत पहले ही होम किया जा चुका था, लिहाजा इस नई आहुति पर न किसी को आश्चर्य होना था और न हुआ। लोहिया कहा करते थे, 'जाति अवसरों को रोकती है और अवसर न मिलने से योग्यता कुंठित हो जाती है और कुंठित योग्यता फिर अवसरों को रोकती है।' 

स्वतंत्र भारत में कांग्रेस के विरुद्ध खड़े होने वाले पहले नेताओं में लोहिया यदि सदा प्रासंगिक हैं तो अपने विचारों और कामों के कारण ही जयप्रकाश नारायण लोकनायक कहलाए परंतु जेपी ने क्या केवल कायस्थों के लिए इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया था? देश जिनकी शिराओं में रक्त बनकर प्रवाहित था, उस विभूति को समाजवादियों ने एक जाति में सीमित कर दिया! इन दिनों मंच की तलाश में विकल शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा की छटपटाहट तो समझी भी जा सकती है लेकिन, इस कार्यक्रम में एक पूर्व आइएएस आलोक रंजन और एक पूर्व लोकायुक्त एससी वर्मा भी गए। प्रशासन और न्याय को जाति निरपेक्ष होना ही नहीं दिखना भी चाहिए।

अपने को समाज का अगुवा बताने में ब्राह्मण व ठाकुर सबसे पहले खड़े हो जाते हैं लेकिन, जाति को तोडऩे का नेतृत्व वे नहीं दे पा रहे। कान्यकुब्ज, सरयूपारी, सनाढ्य, गौड़, सारस्वत का झमेला मानो कम था कि विप्रवर खाले और ऊंचे के वाजपेयी में फंस गए। मेरा गोत्र तेरे गोत्र से अच्छा की मानसिकता में यदि ब्राह्मण उलझा है तो ठाकुर साहब भी चंद्रवंशी और सूर्यवंशी के इंद्रजाल से मुक्त नहीं हो पा रहे। 2018 में जीने वालों के मन अब भी 1918 में बसते हैं।

हमारे दफ्तर में कितने ही ऐसे कार्ड आते हैं जिनमें किसी महापुरुष की जयंती या पुण्यतिथि की सूचना होती है। ब्राह्मण परशुराम जयंती मनाते हैं और क्षत्रिय राणा प्रताप की। क्यों? घास की रोटी खाने वाले परम प्रतापी प्रताप ने जिस मेवाड़ को (चित्तौड़ छोड़कर) मुगलों से मुक्ति दिलायी, उसमें क्या दूसरी जातियां नहीं रहती थीं? 562 रियासतों का भारत में विलय कराने वाले असाधारण सरदार पटेल का ऋणी पूरा देश है लेकिन, उनकी जयंती भी जाति के बैनर पर मनायी जाती है और यही इस देश का नासूर है।

यह बीमारी राजनीति की देन नहीं इसलिए इसका निदान समाज को ही करना होगा। आप मन से देश के लिए कुछ करना चाहते हैं तो पहले ब्राह्मण पटेल जयंती मनाएं और क्षत्रिय डा. अम्बेडकर की। इन महापुरुषों का जीवन सबके लिए अनुकरणीय है।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था-

'धर्म यह सिखाता है कि प्रत्येक प्राणी स्वयं तुम्हारी आत्मा का ही नाना रूपों में विकास है। दोष है व्यावहारिक आचरण और ह्दय का अभाव।

सोचेगा कोई...! 


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