लखनऊ में होने लगे हैं ऐसे मुशायरे, जिनमें मंच पर केवल महिलाएं
हिना कहती हैं कि अक्सर मुशायरों के मंच पर एक या दो महिलाएं ही होती हैं। जाहिर सी बात है- पुरुष शायरों के मुकाबले उनको वक्त कम मिलेगा। मंच पर सभी महिलाएं होंगी उनको ज्यादा मौके मिलेंगे।
लखनऊ, (पवन तिवारी)। चेहरे पर हिजाब। आंखों में अनगिनत ख्वाब। फलक पर छा जाने का ख्वाब। रचने-गढऩे का ख्वाब। डायरी के फडफ़ड़ाते पन्नों से निकलकर ऊंची परवाज का ख्वाब। तहजीब के शहर में ये सपने हकीकत में बदल रहे हैं। पर्सनल डायरी से निकलकर उनकी नज्में मुशायरों, महफिलों और बज्मों की शान में सितारे टांक रही हैं। बिल्कुल नई बात है...एक ऐसा मंच, जहां सिर्फ वे ही होती हैं। वे ही निजामत (संचालन) करती हैं, वे सदारत (अध्यक्षता) करती हैं और वे ही शेर, कविताएं, गजलें, रुबाइयां पढ़ती हैं। लखनऊ में हाल ही में ऐसे मुशायरे हुए हैं। मुखातिब फाउंडेशन की ओर से रौशनाई नाम से बीते मार्च में और दूसरा अभी बीते 25 दिसंबर को नारी तू नारायणी नाम से।
इन मुशायरों की खूबी यह थी कि इनमें मंच पर सिर्फ महिलाएं थीं। श्रोताओं के लिए हालांकि ऐसी कोई बंदिश नहीं थी। उनमें पुरुष भी थे। आयोजकों का दावा है कि लखनऊ में ऐसा पहली बार हुआ। इन मुशायरों की चश्मदीद रहीं रुबीना और हिना हैदर रिजवी कहती हैं-यह एक नया प्लेटफॉर्म है। शायरों के साथ मंच साझा करने में हमें कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन अलग स्टेज पर हम खवातीन के लिए बड़ी सहूलियतें होती हैं। खासतौर पर नई शायरात (महिला शायर) के लिए। उनमें थोड़ी झिझक जरूर होती है। रुबीना वैसे तो लैंगिक भेदभाव के खिलाफ हैं। लेकिन, महिलाओं के लिए अलहदा मुशायरे की हिमायती हैं।
'मुखातिब' की फाउंडर आयशा अयूब की ख्वाहिश है कि साल में कम से कम एक बार खवातीन का मुशायरा जरूर हो। यह कोशिश रंग ला रही है। वह कहती हैैं- लखनऊ में हमारे कार्यक्रम के बाद कई नशिस्तें हुईं। भोपाल में भी ऐसा मुशायरा हुआ, जिसमें मंच पर केवल महिलाएं थीं।
मुखातिब संस्था की फाउंडर आयशा अयूब कहती हैं कि अमूमन मुशायरों में उन शायरात को बुलाया जाता है, जो तरन्नुम में शेर पढ़ती हों या खूबसूरत हों। हमने ऐसी शायरात को बुलाया, जो डायरियों में उम्दा शायरी लिखती हैं, लेकिन उनको कोई बुलाता नहीं है। हमने जिन्हें बुलाया था, उनमें तकरीबन 13-14 ऐसी शायरात थीं जो मुशायरों में नहीं शरीक होती थीं।
गंगा-जमुनी तहजीब
इन मुशायरों में कौमी एकता और गंगा-जमुनी तहजीब की धारा बहती है। हिंदू-मुस्लिम दोनों वर्गों की महिलाएं बढ़-चढ़कर शरीक होती हैं। दिसंबर में हुए नारी तू नारायणी मुशायरे में अना देहलवी के इस शेर ने इसकी तसदीक की-
फूल के रंगों को तितली के हवाले कर दूं, गालिबो-मीर को तुलसी के हवाले कर दूं,
आज आपस में मिला दूं मैं सगी बहनों को, यानी उर्दू को हिंदी के हवाले कर दूं।
लखनऊ को यूं ही तहजीब का शहर नहीं कहा जाता। आखिर यह मीर अनीस, मीर तकी मीर, मिर्जा दबीर, जोश, चकबस्त, मखमूर लखनवी, कृष्ण बिहारी नूर, इरफान सिद्दीकी, मलिकजादा मंजूर अहमद और अनवर जलालपुरी का शहर है।
मजाज लखनवी का एक ख्वाब था- तेरी नीची नजर खुद तेरी अस्मत की मुहाफज है,
तू इस नश्तर की तेजी आजमा लेती तो अच्छा था। तेरे माथे पे यह आंचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।
मजाज का यह ख्वाब अब पूरा होता दिख रहा है।