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ज्ञान के साथ मनोरंजन का मेल, पुस्तक प्रेमियों के शहर में लगा किताबों का मेला Lucknow News

नेशनल बुक फेयर 17वां संस्करण पाठकों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं पुस्तक मेला। कुछ कम नहीं होती लेखकों की भी बेसब्री

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Fri, 20 Sep 2019 10:04 AM (IST)Updated: Fri, 20 Sep 2019 10:04 AM (IST)
ज्ञान के साथ मनोरंजन का मेल, पुस्तक प्रेमियों के शहर में लगा किताबों का मेला Lucknow News
ज्ञान के साथ मनोरंजन का मेल, पुस्तक प्रेमियों के शहर में लगा किताबों का मेला Lucknow News

लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। 'हर घर में एक छोटी लाइब्रेरी जरूर होनी चाहिए'.... ऐसा हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम कहते थे। 2013 में मोती महल लॉन में लगे राष्ट्रीय पुस्तक मेला में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम आए थे। उन्होंने पुस्तक मेला के साथ ही मेले में उमड़ी पाठकों के भीड़ की भी सराहना की थी। शहर में पुस्तक मेलों की खूबसूरत परंपरा रही है। यहां पाठकों के लिए पुस्तक मेले किसी उत्सव से कम नहीं हैं। बच्चे, युवा और बुजुर्ग हर किसी को बुक फेयर का इंतजार रहता है। वहीं, लेखकों की बेसब्री भी कुछ कम नहीं। 20 सितंबर (शुक्रवार) से शुरू हो रहे दस दिवसीय राष्ट्रीय पुस्तक मेला के इतिहास को टटोलने का प्रयास किया तो कई रोचक प्रसंग सामने आए।  

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राष्ट्रीय पुस्तक मेला के संयोजक मनोज चंदेल ने बताया कि हम अकसर तरह-तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया करते थे। तब कुछ लोगों ने बोला कि लखनऊ में भी पुस्तक मेला किया जाना चाहिए। उस समय पुस्तक मेला आयोजन का कोई अनुभव नहीं था। मैंने, उमेश ढल (स्व.) और देवराज अरोरा ने मिलकर पुस्तक मेला आयोजन की तैयारी शुरू की। 2003 की बात है। हम दिल्ली बुक फेयर गए। वहां द फेडरेशन ऑफ पब्लिशर्स एंड बुक सेलर एसोसिएशन इन इंडिया के एससी सेठी से मुलाकात हुई। उन्होंने लखनऊ में बुक फेयर शुरू करने के लिए सहायता करने की हामी भरी। उसके बाद हम लखनऊ आकर पुस्तक मेला के लिए जगह तलाशने लगे। उस समय वल्र्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर के स्टेट प्रेसीडेंट ने इसके लिए हमें मदद की। तब बलरामपुर गार्डेन में पुस्तक मेला के लिए जगह मिली। 2003 में पहला राष्ट्रीय पुस्तक मेला वहीं लगा। 

 

इससे पहले शहर में कभी-कभी पुस्तक मेले हुए थे पर उनका स्तर वो नहीं होता था जो किताबों के मेलों का होना चाहिए। पहले राष्ट्रीय पुस्तक मेला के उद्घाटन के लिए तत्कालीन राज्यपाल विष्णु कांत शास्त्री आए थे। उस बुक फेयर में 55 स्टॉल थे। 40-45 लाख की ब्रिकी हुई थी। 2007 में स्टॉलों की संख्या बढ़कर 80 हो गई। 2009 तक लगातार छह मेले बलरामपुर गार्डेन में ही लगे। 2010 में आठवां पुस्तक मेला मोती महल लॉन में शुरू किया। स्टॉलों की संख्या 85 हो गई। 70 लाख के आसपास की ब्रिकी हुई। 10वें पुस्तक मेला तक स्टॉलों की संख्या 100 से ज्यादा हो गई थी। उसके बाद स्टॉलों की संख्या लगातार बढ़ती गई। 13वें पुस्तक मेले तक स्टॉलों की संख्या 200 पहुंच गई। पौने दो करोड़ के आसपास की किताबें भी बिकीं। तब से लगातार सितंबर-अक्टूबर में राष्ट्रीय पुस्तक मेला का आयोजन होता आ रहा है। 

धीरे-धीरे मेला प्रसिद्ध होने लगा। लोगों ने साल में दो बार पुस्तक मेला लगाने के लिए बोलना शुरू किया। फिर हमने 2014 से लखनऊ पुस्तक मेला नाम से एक और पुस्तक मेला शुरू किया। हालांकि उसमें स्टॉलों की संख्या कम रखी। फरवरी-मार्च में लगने वाले लखनऊ पुस्तक मेला के साथ ही बुक फेयर में थीम की भी शुरुआत की। 

शान-ए-लखनऊ अवार्ड भी 

2014 में लखनऊ पुस्तक मेले की थीम स्वच्छता अभियान पर केंद्रित थी। थीम के साथ ही शान-ए-लखनऊ अवार्ड की भी शुरुआत हुई। उस समय सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को शान-ए-लखनऊ अवार्ड से नवाजा गया था। फिर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और खूब पढ़ो, खूब खेलो आदि थीम पर पुस्तक मेला लगता रहा। मेट्रो भी अपने शहर की शान है, इसलिए एक बार शान ए लखनऊ की थीम मेट्रो रखा था। डाक विभाग के साथ मिलकर मेट्रो पर स्पेशल कवर भी निकाला था। 

...और बेटी ने संभाल ली जिम्मेदारी 

2016 में वह समय भी आया जब मेला आयोजकों में से एक का साथ छूट गया। पुस्तक मेला की तैयारी ही चल रही थी कि आयोजन से दो महीने पहले उमेश ढल का निधन हो गया। उसके बाद बेटी आस्था ढल ने उनकी जिम्मेदारी संभाली। आस्था ढल के अनुसार पिता हमेशा ही पुस्तक मेला को और बेहतर करना चाहते थे। 2016 में तो उनके अनुसार ही पुस्तक मेला हुआ पर फिर मैंने इसमें नई चीजें जोडऩा शुरू किया। डॉक्टर से मिलिए कार्यक्रम की शुरुआत की। वहीं, पुस्तक मेला के मंच से किताबें और पौधे सम्मान और उपहार स्वरूप देने की परंपरा शुरू की। 

प्रकाशकों की बात 

राजपाल एंड संस (दिल्ली) विक्रय प्रतिनिधि अशोक शुक्ला ने बताया कि हम यहां 2010 से लगातार पुस्तक मेले में हिस्सा ले रहे हैं। हमने पहले दो स्टॉल के साथ शुरुआत की थी। बाद में लखनऊ वालों में पुस्तक प्रेम को देखते हुए स्टॉलों की संख्या बढ़ाई। इस वर्ष जलियांवाला बाग पर शताब्दी संस्करण के अवसर पर अमृतसर 1919 का प्रकाशन किया है। शायरी में हमने सात नये पाकिस्तानी शायरों का कलेक्शन छापा है। सरहद के आर-पार की शायरी सिरीज छापी है। नवाबी शहर के पाठकों के लिए यह हमारी तरफ से तोहफा है।  

साहित्य भंडार (प्रयागराज) के विक्रय प्रतिनिधि सूर्यबली मिश्र कहते हैं, लखनऊ के पाठकों की साहित्य के प्रति लगाव प्रशंसनीय है। यहां के लोग कहानी, कविता, उपन्यास के साथ वैचारिक साहित्य को भी खरीदना पसंद करते हैं। पुस्तक मेला में साहित्य भंडार द्वारा प्रकाशित 250 प्रतिनिधि लेखकों की चुनिंदा पुस्तकें मात्र 50 रुपये में बिकती हैं। इस बार विशेष आकर्षण के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय व्यक्ति एवं वाड:मय दो खंडों में है, जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और बड़े साहित्यकारों के लेख हैं। 

किताबघर प्रकाशन (दिल्ली)  राजीव शर्मा ने बताया कि 15 साल से लगातार हम पुस्तक मेला में आ रहे हैं। लखनऊ के पाठक वर्ग की खूबसूरती इसी में है कि यहां अभी भी साहित्य जिंदा है। हमने यहां पुस्तक मेला में कई किताबों का विमोचन भी किया। खासकर लखनऊ के पाठकों को नई पुस्तकों का इंतजार भी रहता है। इस बार हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर जगमोहन सिंह राजपूत की गांधी को समझने का यही समय किताब लेकर आए हैं। 

प्रतीक्षा उस पल की...

बाल साहित्यकार नीलम राकेश के मुताबिक, पुस्तक मेला में 27 सितंबर को शाम 3:30 बजे मेरी कृति दादी दो बेसन के लड्डू का विमोचन होगा। पिछले वर्ष पुस्तक मेले में मेरे कहानी संग्रह 'धूप छांव'  का विमोचन हुआ था। शायद मैं उसी पल से अगले पुस्तक मेला की प्रतीक्षा करने लगी थी। ये पुस्तक मेला मेरे लिए इसलिए भी खास है, क्योंकि ये पहला अवसर है जब मेरी और मेरे जीवन-सहचर राकेश चंद्रा की पुस्तक एक साथ लोकार्पित होगी। 

लेखक राकेश चंद्रा बताते हैं, पुस्तक मेला में पहली बार मेरी पुस्तक सुन भाई साधो...! का विमोचन होना है। अपने ही शहर में, अपनों के बीच व अपनों केआशीर्वाद एवं शुभेच्छाओं के बीच अपनी कृति को विमोचित करते हुए मुझे अत्यन्त गौरव एवं रोमांच का अनुभव हो रहा है। 

हास्य-व्यंग्य कवि एवं लेखक पंकज प्रसून के मुताबिक, यह इकलौता ऐसा उत्सव होता है जहां लेखक, पाठक, आलोचक और प्रकाशक एक ही पंडाल के नीचे पाए जाते हैं। मैं पिछले आठ वर्षों से राष्ट्रीय पुस्तक मेला लखनऊ से जुड़ा रहा हूं और यह अब लखनऊ की पहचान बन चुका है। कई लेखक अपनी किताब पुस्तक मेले के दौरान ही प्रकाशित करवाते हैं, जिससे कि वह इसके मंच से विमोचन करा सकें। मुझे खुशी है कि इस बार मेरी किताब 'द लंपटगंज'  पर व्यंग्य वार्ता का आयोजन है। 

लेखक एवं किस्सागो  हिमांशु बाजपेयी कहते हैं, पठन-पाठन की संस्कृति और किताबों की गरिमा के प्रति चेतना जगाने के लिए पुस्तक मेला जरूरी है। पढऩे लिखने की तहजीब में जितना ज्यादा इजाफा होगा उतना बेहतर है। मेरे लिए ये इस बार इसलिए भी खास है क्योंकि मेरी पहली किताब किस्सा-किस्सा लखनउवा भी पुस्तक मेले में हाजिर रहेगी। अपने शहर में लगने वाले किताबों के मेलों के बीच अपनी किताब देखना तसल्ली की बात है। 


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