बेहतर आर्थिक प्रगति के लिए लखनऊ में अभी और सुधार की जरूरत
आंकड़े बताते हैं कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या यहां सबसे ज्यादा है। शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर भी सबसे ज्यादा है।
प्रदेश की राजनीतिक राजधानी को आर्थिक राजधानी बनाने के उपाय पहले भी हुए, लेकिन निरंतरता का अभाव हमेशा सालता रहा। स्कूटर इंडिया, मोहन मीकिंस जैसी कंपनियों ने राजधानी को आर्थिक पहचान तो दी, लेकिन वह समय के साथ कदम ताल नहीं कर सकीं। बीच के दौर में रोजगार सृजन घटा, व्यापार के रास्ते अवरुद्ध हुए। अब विकास का नया दौर शुरू हुआ है। आस जगी है। राजधानी में आइटी हब बनने की प्रबल संभावनाएं हैं। टीसीएस, एचसीएल इसी का उदाहरण हैं, लेकिन संभावनाओं के बावजूद आर्थिक विकास में लखनऊ का जो योगदान होना चाहिये था, वह अब तक अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंच पाया है।
आंकड़े बताते हैं कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या यहां सबसे ज्यादा है। शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर भी सबसे ज्यादा है। कृषि उत्पादकता न्यूनतम है। औद्योगीकरण लगभग नगण्य है। ज्यादातर निवेश नोएडा, गाजियाबाद तक सीमित है। एनसीआर से जुड़े प्रदेश के शहरों की अपेक्षा लखनऊ निवेश और औद्योगीकरण के मामले में बुरी तरह पिछड़ा हुआ है।
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लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. अरविंद मोहन राजधानी की अर्थव्यवस्था को लेकर जहां चिंता जाहिर करते हैं, चुनौतियां समझाते हैं, वहीं अभूतपूर्व संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं। उनका मानना है कि लखनऊ के विकास को लेकर एक विजन डॉक्यूमेंट लाना चाहिए। इसके साथ ही एक एक्शन प्लान होना चाहिए। विजन डॉक्यूमेंट ऐसा हो, जिसमें माइल स्टोन्स स्पष्ट रूप से दिखाई दें। इस प्रयास में कुछ महत्वपूर्ण चीजों का ध्यान रखना होगा।
लखनऊ को बनाएं ब्रांड
प्रो. अरविंद मोहन कहते हैं कि लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे से दिल्ली कनेक्ट हो गया है। लखनऊ बलिया एक्सप्रेस-वे बन रहा है। इन दोनों एक्सप्रेस-वे के मध्य में राजधानी है, जो अपने आप में देश के बड़े बाजार को समाहित किए हैं। साथ ही इसका बिलकुल अलग पोटेंशियल है। दुनिया भर में विकास की अवधारणा के साथ कुछ पब्लिक सिंबल प्रमोट किये गए हैं। ज्यादातर शहरों को ही इसका सिंबल बनाया गया। इन्हें केंद्र बनाकर ही आसपास और पूरे प्रदेश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया गया है।
प्रदेश सरकार को चाहिए कि लखनऊ को एक ब्रांड की तरह प्रमोट करे। जैसे आंध्र प्रदेश ने हैदराबाद को प्रमोट किया। ऐसा करके हम लखनऊ को पूरे प्रदेश के विकास की धुरी बना पाएंगे। लखनऊ की भौगोलिक अवस्थिति इसके एकदम माकूल है। यह न केवल सेंट्रल यूपी बल्कि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिल्कुल मध्य में है। इसमें पूरे प्रदेश की अर्थव्यवस्था को अपने साथ-साथ इंजन की तरह आगे ले जा पाने की क्षमता है। वर्तमान में इस अवधारणा के महत्व को समझा भी गया है। उनके अनुसार ब्रांड लखनऊ प्रदेश सरकार की एक अहम प्राथमिकता होनी चाहिए।
जॉबलेस ग्रोथ की स्थिति बदलनी होगी
विकास का वास्तविक लाभ तभी है, जब रोजगार सृजन हो। 1970 के दशक में विकास दर एक फीसद बढ़ती थी, तो लगभग 0.4 फीसद रोजगार सृजित होता था। मौजूदा समय में एक प्रतिशत की विकास दर के साथ रोजगार सृजन की दर मात्र 0.01 प्रतिशत है। लखनऊ के संदर्भ में कहें तो जॉबलेस ग्रोथ की स्थिति बदलनी होगी। इसके लिए जरूरी है कि लखनऊ में विकास का पुराना मॉडल बदला जाए।
स्किल्ड मैनपॉवर का मॉडल तैयार हो
हर साल विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थाओं से शिक्षित युवा तो निकल रहे हैं, लेकिन प्रशिक्षित युवा नहीं। इंडस्ट्री को जिस तरह के स्किल्ड मैनपॉवर की दरकार है, वह नहीं मिल पा रहा। जितनी संख्या में हिस्टोरियन, पॉलिटिकल साइंटिस्ट, जियोग्राफर्स निकल रहे हैं, उतनी डिमांड नहीं है, जबकि जिन क्षेत्रों में डिमांड है, वहां मैनपॉवर की कमी है। समस्या यही है कि प्लानिंग में यह नहीं देखा जा रहा कि किस तरह के स्किल्ड मैनपॉवर की ज्यादा जरूरत है।
सही डेवलॅपमेंट टूल की जरूरत
प्रदेश की बजट प्रक्रिया पूरी तरह से बदलने की आवश्यकता है। लखनऊ को इसमें प्रमुख स्थान देना चाहिए। बजट का परंपरागत स्वरूप बदलना चाहिए। 2004 में एफआरबीएन एक्ट लाने के बाद हम राजकोषीय घाटे, राजस्व घाटा जैसे कुछ संकेतकों को ब्रह्मवाक्य की तरह लेने लगे। यह सोच आई है कि राजकोषीय घाटा तीन प्रतिशत रखा जाए। तब से लेकर आज तक हमारा सारा प्रयास इसको तीन प्रतिशत से कम रखने पर लगा हुआ है। परिणाम स्वरूप हम बजट प्रक्रिया को सही मायने में डेवलॅपमेंट टूल नहीं बना पाए।
सुधार के लिए अपनाने होंगे यह उपाय
- लखनऊ को विकास के मॉडल के रूप में प्रमोट करना चाहिए।
- उद्योग आदि को टारगेट तय करते समय ऊर्जा, पानी आदि में कितनी वृद्धि की आवश्यकता होगी, इसका आंकलन योजना व्यवस्था में समाहित हो। तभी लक्ष्य सफल हो सकेंगे।
- ग्राम पंचायतों को तमाम कार्य सौंप दिए गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप ग्राम सभा स्तर पर संसाधन उपलब्ध नहीं है, जो कि तुरंत उपलब्ध कराए जाएं।
प्रो. अरविंद मोहन
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