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बसपा से दूर होते दिग्गजों ने मायावती के लिए बढ़ाई चुनौती, वर्ष 2022 में सत्ता में वापसी की राह हुई मुश्किल

उत्तर प्रदेश में बसपा ही ऐसी पार्टी जिसने सर्वाधिक अपने दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया या वो खुद छोड़कर चले गए। नतीजा रहा कि बसपा का काडर छिन्न भिन्न होता दिखने लगा। अब वर्ष 2022 में सत्ता में वापसी का ख्वाब धुंधलाता दिख रहा है।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Sat, 05 Jun 2021 07:30 AM (IST)Updated: Sat, 05 Jun 2021 08:32 AM (IST)
बसपा से दूर होते दिग्गजों ने मायावती के लिए बढ़ाई चुनौती, वर्ष 2022 में सत्ता में वापसी की राह हुई मुश्किल
बसपा से दूर होते दिग्गजों ने मायावती के लिए 2022 में सत्ता में वापसी की राह मुश्किल बना दी है।

लखनऊ [राज्य ब्यूरो]। बिछड़े सभी बारी-बारी... यह फिल्मी गीत बहुजन समाज पार्टी पर सटीक बैठता है। दो दशक में उत्तर प्रदेश में बसपा ही ऐसी पार्टी जिसने सर्वाधिक अपने दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया या वो खुद छोड़कर चले गए। दिग्गजों के अलग होने का नतीजा रहा कि बसपा का काडर छिन्न भिन्न होता दिखने लगा। वोटों का समीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की सियासी जमीन भी दरकी है। वर्ष 2022 में सत्ता में वापसी का ख्वाब धुंधलाता दिख रहा है। वहीं जिला पंचायत अध्यक्ष व ब्लाक प्रमुख जैसे चुनावों में भी स्थानीय स्तर पर प्रबंधन की कड़ियां बिखरने का लाभ अन्य दलों को मिलने की उम्मीद जगी है।

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संस्थापक कांशीराम के साथ बसपा की जड़ें मजबूत करने को संघर्ष करने वाले एक एक कर दूर होते चले गए। पूर्व मंत्री मसूद अहमद, आरके चौधरी, जगबीर सिंह, जंगबहादुर पटेल, बरखूराम वर्मा, दीनानाथ भाष्कर, स्वामी प्रसाद मौर्य, इंद्रजीत सरोज, ब्रजेश पाठक, नसीमुद्दीन सिद्दीकी व रामवीर उपाध्याय से लेकर लालजी वर्मा और रामअचल राजभर तक लंबी सूची है।

तमाम बड़े व मिशन से जुड़े पुराने नेताओं के छिटकने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए एक कोआर्डिनेटर की चिंता है कि नेतृत्व को अवधारणा बदलनी होगी कि वोट मायावती के नाम पर मिलता है, किसी अन्य की भूमिका अधिक नहीं होती। उनका कहना है कि ऐसा अब बदले हालात में आसान नहीं है। दलित वोटों में भाजपा ने बड़ी सेंध लगा दी है। भीम आर्मी जैसे संगठन भी कड़ी चुनौती दे रहे हैं।

दलित-मुस्लिम समीकरण आसान नहीं : बसपा से दूर होने वालों में ज्यादातर पिछड़े वर्ग के नेता हैं। राममंदिर आंदोलन के बाद अन्य पिछड़े वर्ग के वोटरों की पसंद बसपा बनने लगी थी। इनके साथ ब्राह्मणों की हिस्सेदारी बढ़ने से ही वर्ष 2007 में बसपा बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही थी। बाद में पिछड़ा वर्ग वोट बैंक छिटक कर वर्ष 2014 में मोदी के रंग में रंग गया। उधर मुस्लिमों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनी तो बसपा का दलित-मुस्लिम समीकरण दो चुनावों में लगतार फेल हो रहा है। दलित चिंतक डा. चरणसिंह लिसाड़ी कहते हैं कि बसपा की नीतियां मिशन से भटककर पैसे व परिवार के इर्द-गिर्द ही सिमटती जा रही है, जिसके चलते दलित-मुस्लिम जैसा प्रभावी वोटों का गणित भी कारगर नहीं होगा।

पंचायत चुनाव बाद बदल सकती है नीति : उधर, बसपा में एक खेमे का मानना है कि मायावती द्वारा निष्कासन जैसे कड़े फैसले वर्तमान की परिस्थितियों को देखकर लिए जा रहे हैं। गत लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन करने का दुष्परिणाम रहा कि बसपा के बागियों को एक और ठिकाना मिल गया। गत राज्यसभा चुनाव में बड़े स्तर पर दलबदल कराकर सपा ने मायावती को और शंकालु बना दिया है। किसी नेता द्वारा बसपा छोड़ने की सुगबुगाहट होते ही निष्कासन की कार्रवाई कर दी जा रही है। सूत्रों का कहना है कि पंचायत चुनाव के बाद घर वापसी जैसा अभियान छेड़कर पुराने नेताओं को जोड़ा जाएगा। उनका कहना है कि बसपा से अलग हुए नेताओं की अन्य दलों में भी पटरी अधिक दिनों तक नहीं जम पाएगी।


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