मां के हाथ के बने पराठे और धर्म का संबंध देखिए
संवादी : तीसरा सत्र : अनुभव का अनोखा संसार में निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बांटे जीवन यात्रा के अंश।
लखनऊ [दीप चक्रवर्ती]। धर्म जैसे व्यापक विषय को क्या मां के हाथों के बने पराठे के दृष्टांत से समझा जा सकता है? जी हां, बिल्कुल समझा जा सकता है। संवादी के मंच पर जब फिल्म निर्माता अनुभव सिन्हा मयंक शेखर के साथ अपने व्यक्तिगत और फिल्मी जीवन का अनुभव बांटने आए तो बातों-बातों में वे लोगों को धर्म की परिभाषा इस उदाहरण से समझा गए।
संवादी के तीसरे सत्र का आरंभ मयंक शेखर ने अनुभव सिन्हा को उनकी फिल्म मुल्क के लिए बधाई देते हुए किया। फिर बातों का सिलसिला आरंभ हुआ। फिल्म के निर्माण के बारे में बताते हुए अनुभव ने कहा, मैं बनारस में बड़ा हुआ, फिर अलीगढ़ चला गया। इन दोनों जगहों पर मैंने सांप्रदायिक विषमता को काफी नजदीक से देखा। तो इस विषय पर फिल्म बनाने की सोची। दोस्तों ने मना किया तो विचार स्थगित कर दिया, लेकिन जेहन में यह विषय तैरता रहा। एक दिन यकायक ही सौ पृष्ठों की स्क्रिप्ट लिख डाली। उन्हीं दोस्तों ने स्क्रिप्ट पढ़ी और कहा तुरंत बना डालो फिल्म। फिर सब अपने आप होता चला गया। फिल्म बनी और इस पर लोगों की यह प्रतिक्रिया रही कि विषय के साथ निरपेक्ष रहते हुए न्याय किया गया है। चूंकि फिल्म सांप्रदायिक मतभेद और उसके ताने-बाने पर बुनी गई थी, लिहाजा चर्चा में धर्म की बात उठना लाजिमी थी। मयंक ने सवाल किया कि चूंकि हम मल्टिपल आइडेंटिटी यानि बहुआयामी पहचान के लिए जाने जाते हैं, हमारी देशज, स्थानीय, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत पहचान होती है, तो अचानक ही इस बीच हमारी धार्मिक पहचान सबसे विशिष्ट कैसे हो जाती है। इस पर अनुभव ने कहा कि इसे ऐसे समझिए, मान लीजिए मेरा दोस्त मुझसे कहता है कि मेरी मां के हाथ के बने पराठे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। यही विचार मेरा मेरी मां के पराठों के लिए है। यदि वह ऐसा कह रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह मेरी मां के पराठों को खराब कह रहा है। धर्म के साथ भी कुछ ऐसा ही है। गड़बड़ी तब आती है जब कोई तीसरा हमें यह समझाने की कोशिश करता है कि वह अपने धर्म को तुम्हारे धर्म से अच्छा बता रहा है और हम उसकी बात का विश्वास कर लेते हैं।
अपनी आरंभिक यात्रा के बारे में बताते हुए अनुभव ने कहा कि मैंने सफलता की परिभाषा को गलत रूप से गढ़ रखा था। तो मेरी आरंभिक फिल्मों को देखकर मेरे मित्र और फिल्मी जगत के लोग मुझसे कहते थे कि तुम्हारी फिल्म और तुम्हारे व्यक्तित्व में अंतर है। अंतत: मैंने तय कर लिया कि मैं जो हूं, वही करूंगा। इसी का नतीजा है फिल्म मुल्क।
मयंक ने एक सवाल किया पोलराइजेशन, सेक्युलरिज्म जैसे शब्द क्या सिर्फ सोशल मीडिया पर ही प्रचलित हैं या कि वे अब वास्तविक रूप ले चुके हैं। अनुभव ने कहा कि बुरे लोगों में यह खासियत होती है कि वे ज्यादा संगठित होते हैं और अपने उत्पाद अथवा विचार की मार्केटिंग करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि यह ज्यादा देर टिकने वाला नहीं है। इसलिए जो कुछ भी नकारात्मक होता हुआ दिख रहा है वह इतिहास के उन पन्नों की तरह ही हैं जो जल्दी से पलट दिए जाएंगे, क्योंकि अंतत: जीत सच्चाई की ही होती है।
चलो मंदिर बनाते हैं, लेकिन...
एक अनुभव ने अपना एक अनुभव बताते हुए कहा, हाल ही मैं अलीगढ़ विवि में था। वहां मैंने कहा कि सब लोग चलो अयोध्या, मंदिर बनाते हैं। विश्वास मानिए पूरा हॉल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा। मंदिर बनने के बाद कम से कम मंदिर बनाने की धमकी से तो निजात मिलेगी।
लखनऊ की पृष्ठभूमि में नहीं है दंगा
मयंक ने पूछा कि लखनऊ में कभी दंगा क्यों नहीं हुआ। इस पर मजाकिया लहजे में अनुभव ने कहा कि यहां के ङ्क्षहदू पूरी तौर पर ङ्क्षहदू अथवा मुसलमान पूरे तौर पर मुसलमान नहीं होंगे। इस पर दर्शकदीर्घा में ठहाके गूंज उठे। जो हमें बांटते हैं हमें उनके बहकावे में नहीं आना है। शायद लखनऊ वाले यह बात समझते हैं, इसलिए यहां दंगे नहीं होते।