Move to Jagran APP

हो जा सतरंगी रे..अब तो लेडीज संगीत में बदल गया अवध का नकटा..!

अब न गारी रही न गाने वाली मिरासिनें-गौनिहारिनें बचीं। विवाह का नकटा लेडीज संगीत में बदल गया। सोहर की जगह डीजे बजने लगा।

By Nawal MishraEdited By: Published: Fri, 03 Nov 2017 11:18 PM (IST)Updated: Sat, 04 Nov 2017 10:49 AM (IST)
हो जा सतरंगी रे..अब तो लेडीज संगीत में बदल गया अवध का नकटा..!
हो जा सतरंगी रे..अब तो लेडीज संगीत में बदल गया अवध का नकटा..!

लखनऊ (जेएनएन)। इतिहास के झरोखे से अवध का अक्स अगर नवाबों, आलीशान खूबसूरत इमारतों और अदब की महफिलों में नजर आता है तो साहित्य के आइने में यह धूमिल संस्कृति की तरह झिलमिलाता है। लेकिन जब आप लोक में झांकेंगे तो यही अवध एक ऐसे उत्साह भरेे संगीतमय समाज की शक्ल में जीवंत हो उठता है, जहां उन्मुक्तता भी मर्यादित है, जहां गारी भी ऐसे गाकर दी जाती है कि सुनने वाले को मजा आ जाए। यही अवध की संस्कृति है।

loksabha election banner

सतरंगी अवधी विरासत के कुछ ऐसे ही रंग शुक्रवार को संवादी के पहले दिन मंच पर उतरे। चिंता यह थी कि जैसा अवध पहले था, अवध के लोग जैसे पहले थे, वैसा सब कुछ अब क्यों नहीं है। अब न गारी रही न गाने वाली मिरासिनें-गौनिहारिनें बचीं। विवाह का नकटा लेडीज संगीत में बदल गया। सोहर की जगह डीजे बजने लगा। चूड़ी पहना कर मनहारिनें नेग मांगती थीं पर अब नेग नहीं, रेट चलता है। पिछली सदी में देहाती समझ कर खूंटी पर टांगी गई ढोलक भी अब कहां परिवारों का हिस्सा बची हैै। बदलाव अगर शाश्वत है तो अवधी विरासत की कीमत पर इस परिवर्तन के मायने क्या हैैं। 

चर्चा के सूत्रधार बने दूरदर्शन के अधिकारी आत्मप्रकाश मिश्र ने अवध की खोती विरासत पर बात उठाई तो विमर्श में शामिल इतिहासकार रवि भट्ट, साहित्यकार यतींद्र मिश्र और उप शास्त्रीय गायिका मालिनी अवस्थी नेे पहले और अब को जैसे मंच पर ही एक दूसरे के सम्मुख खड़ा कर दिया। 'मोरे राम अवध घर आए...' को सुरों में पिरोते हुए मालिनी ने कहा कि अवध की संस्कृति में तो राम हैैं पर यहां की सोच सेक्युलर है। यहां दरगाहों पर भी अवधी में कभी 'लागी नजर भरपूर...' तो कभी 'खेलें बीबी फातिमा की गोद, नबी दूल्हा बनें...' गाए गए। 'सुगपंखी उढ़निया मोरी उड़ी-उड़ी जाए...' जैसे पुराने गीत भी हर बार नए लगते हैैं।

दूरगामी है विरासत है नुकसान

इतिहासकार रवि भट्ट ने विरासत को मूर्त व अमूर्त में बांटते हुए अमूर्त के नुकसान को दूरगामी ठहराया। साहित्यकार यतींद्र ने कहा कि सभ्यता जीवित है तो संस्कृति भी कहीं न कहीं बची रहती हैै, भले ही धूमिल क्यों न हो। 

सवाल भी खूब उठे

ठसाठस भरे सभागार में सीढिय़ों तक पर बैठे लोगों ने संवादी में सवाल भी खूब किए। आचार्य रामेश्वर ने यतींद्र से पूछा कि संस्कृति यदि लुप्त नहीं हुई तो लखनवी ठुमरी लुप्त कहां चली गई। एक प्रशिक्षु शास्त्रीय गायक ने जब बताया कि सोहर गाने पर लोग हंसते हैैं तो पूरे सभागार में फिर ठहाका लग गया। मालिनी ने फिर उसका उत्साह बढ़ाया।

समधी की मूंछ जैसे कुत्ते की पूंछ

संवादी में मालिनी से जब पूछा गया कि विवाह समारोहों में गारी गाने की परंपरा कैसे पड़ी तो मालिनी ने भी गारी गाकर समां बांध दिया। लोकगीत में जब उन्होंने समधी की मूंछ की तुलना कुत्ते की पूंछ से की और अधिक खाने वाले खउआ से लेकर शक्ल से कौवा लगने तक को सुर में बांधा तो खिलखिलाते लोगों की तालियों से सभागार गूंज उठा।

भातखंडे ने नहीं बुलाया गिरिजा देवी को

मालिनी ने कहा कि आज के युवा तो शकीरा से लेकर गिरिजा देवी तक को सुनते हैैं लेकिन संस्थान इसे आगे बढ़ाने के अपराधी हैैं। उन्होंने बताया कि शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी ने विजिटिंग प्रोफेसर के लिए भातखंडे संगीत संस्थान को दो बार लिखा लेकिन उन्हें नहीं बुलाया गया।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.