बीहड़ से खोज निकाले 'मातृवेदी' के बलिदानी, हर पहलू में छिपी है रोचक कहानी Lucknow News
आजाद हिंद सरकार के समानांतर चंबल में मातृवेदी संगठन देश की आजादी के लिए लड़ रहा था। इन गुमनाम क्रांतिवीरों के देशप्रेम को बयां करतीं हैरतअंगेज कहानी।
लखनऊ [आशुतोष मिश्र]। बचपन में सुना था कि प्रथम स्वाधीनता संघर्ष में पुरखे बस्ती के महुआ डाबर से विस्थापित होकर बगल के गांव नकहा में आ बसे थे। घर के बुजुर्गों से सुन रखा था कि दो अंग्रेज मारे गए तो गुस्साई सरकार ने गांव फूंक डाला था। क्रांति की कहानियों से जुड़ा बचपन का रिश्ता वक्त के साथ जवान होता गया। दिलचस्पी बढ़ी तो चंबल के गुमनाम क्रांतिकारी संगठन 'मातृवेदी' के बारे में पता चला।
शाह आलम
आजादी के गुमनाम दीवानों के बारे में जानने के लिए उत्साही युवा शाह आलम साइकिल से बीहड़ के सफर पर निकल पड़े। औरैया से लेकर कानपुर तक कई इलाकों में 2700 किलोमीटर साइकिल यात्रा कर इस गुमनाम संगठन के क्रांतिकारियों की कई कहानियां ढूंढ निकालीं। इस स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में दैनिक जागरण इन क्रांतिवीरों की कहानियां आज से श्रृंखलावार आप तक पहुंचा रहा है..।
भाइयो आगे बढ़ो.. फोर्ट विलियम छीन लो.. जितने भी अंग्रेज सारे, एक-एक बीन लो..। 'मातृवेदी' का यह नारा संगठन की आक्रामकता और जच्बे का बोध कराने के लिए काफी है। 20वीं सदी के दूसरे दशक में चंबल के साथ यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) के 40 से ज्यादा जिलों में मातृवेदी की ताकतवर उपस्थित थी। 1918 में कई शहरों की दीवारों पर संगठन की ओर से रातों में पर्चे चिपकाए गए कि 'अंग्रेजों को मार डालो और आजाद रहो'। इससे लोगों के मन में क्रांति की जो चिंगारी पनपी थी, उसे क्रांतिकारी साहित्य से शोला बनाने की कोशिश हुई तो अंग्रेजों की नींद उड़ गई।
'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' शीर्षक से लिखी यह पुस्तक चर्चा में आई तो अंग्रेजों ने 24 सितंबर, 1918 को आनन-फानन उत्तर प्रदेश में इसे बैन कर दिया। मातृवेदी का इतिहास टटोलने वाले लघु फिल्म निर्माता शाह आलम बताते हैं यह वही पुस्तक है जिसके बैक पेज पर पहली बार जगदंबा प्रसाद हितैषी के गीत शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले.., का प्रकाशन हुआ था।
इस पुस्तक के प्रकाशन की कहानी बेहद रोचक है। प्रताप अखबार में चंपारण के किसानों की पीड़ा उकेरने वाले पत्रकार पीर मुहम्मद मुनिस ने इसे लिखा। क्रांतिकारी गंगा सिंह ने इस किताब के लिए कोटेशन जुटाए और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने छपवाने की जिम्मेदारी उठाई। पुस्तक में सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की सीख दी गई थी। इसका प्रकाशन कराने के लिए बिस्मिल जी ने अपनी मां मूलमती जी से व्यापार के बहाने 200 रुपये लिए थे। पुस्तक की बढ़ती लोकप्रियता देख अंग्रेजों ने इसे बैन कर दिया। जब यह पुस्तक उप्र में प्रतिबंधित हो गई तो मातृवेदी के साहित्य प्रचार विभाग ने इसे दिल्ली में होने जा रहे कांग्रेस के अधिवेशन में बेचने की योजना बनाई। एटा जिले के नगला डरू गांव में 1898 को जन्मे संगठन के सेंट्रल कमेटी मेंबर शिवचरण लाल शर्मा, रामप्रसाद बिस्मिल, देवनारायण, सोमदेव व शिवचरण के बड़े भाई कालापानी की सजा काटकर आए रामचरण लाल शर्मा इसके लिए दिल्ली आए। अधिवेशन में कांग्रेसी साहित्य के स्टॉल के बगल में इन्होंने स्टॉल लगाया। 3 अक्टूबर, 1918 को इस पुस्तक को दिल्ली में भी बैन कर दिया गया। तब स्टॉल पर पुलिस का छापा पड़ा था। बिस्मिल और कुछ अन्य साथियों को भगाकर शिवचरण लाल शर्मा ने गिरफ्तारी दी। सोमदेव व देवी दयाल भी गिरफ्तार हुए थे।
संगठन में 500 घुड़सवार 2000 पैदल सिपाही
'मातृवेदी' का जिक्रप्रभा पत्रिका में छपे रामप्रसाद बिस्मिल के लेख में मिलता है। कमांडर इन चीफ गेंदालाल दीक्षित की अगुआई वाला यह संगठन कई विभागों में बंटा था। संगठन के पास 500 घुड़सवार, 2000 पैदल सिपाही, हथियारों का जखीरा था। कोष में आठ लाख से अधिक संपत्ति थी। दिसंबर 1915 में अफगानिस्तान में गठित 'आजाद हिंद सरकार' के समानांतर चंबल में यह संगठन देश की आजादी के लिए लड़ रहा था।
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