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जागरण फिल्म फेस्टिवल समापन: भीगे अल्फाज से कागज की कश्ती तक..

शानदार फिल्मों के प्रदर्शन के साथ विदा हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल का यह नौवा पड़ाव।

By JagranEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 11:35 AM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2018 11:35 AM (IST)
जागरण फिल्म फेस्टिवल समापन: भीगे अल्फाज से कागज की कश्ती तक..
जागरण फिल्म फेस्टिवल समापन: भीगे अल्फाज से कागज की कश्ती तक..

लखनऊ[दीप चक्रवर्ती]। शानदार फिल्में, दिलचस्प किरदार, सशक्त अभिनय और दर्शकों का प्यार। तीन दिनों तक शहर पर बेहतरीन फिल्मों की खुमारी छाई रही। कुछ भीगे अल्फाज से शुरू हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल जब कागज की कश्ती के प्रदर्शन के साथ समाप्त हुआ तो पीछे कई यादगार लम्हे छोड़ गया। लम्हे, जो दर्शकों के जेहन में लंबे समय तक ताजा रहने वाले हैं। विश्व सिनेमा के चुनिंदा नगीने, लघु फिल्में, संदेशपरक और उपन्यास पर आधारित फिल्मों का यह गुलदस्ता लखनऊवासियों को कितना पसंद आया यह इस बात से समझा जा सकता है कि वे अगले फेस्टिवल का अभी से इंतजार कर रहे हैं।

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न सिर्फ उन्हें फिल्में पसंद आईं बल्कि सिनेमा जगत की हस्तियों से रूबरू होने का और उनसे संवाद करने का मौका भी इस फेस्टिवल में उन्हें मिला। सिनेमाई शख्सियतों ने भी लखनऊवासियों के वजनदार सवालों और उनकी जिज्ञासाओं को हाथोहाथ लिया और इस द्विपक्षीय संवाद को अपने लिए एक बेहतरीन अनुभव करार दिया।

यह दर्शकों का उत्साह ही था कि एक फिल्म के खत्म होने से पहले ही अगली फिल्म के लिए ऑडिटोरियम के बाहर लोगों की कतार लग जाती थी। सीटें फुल हुईं तो सीढि़यों पर बैठकर फिल्म देखी। लखनऊवासियों के इस प्यार ने अभिनेता संजय मिश्र को इतना अभिभूत किया कि वे अपनी सीट छोड़कर उनके बीच सीढि़यों पर आकर बैठ गए। दर्शक भी उन्हें अपने बीच पाकर खुश थे। अपने शहर के लोगों को बड़े पर्दे पर देखना भी बढि़या अनुभव रहा। फिल्म तर्पण की अधिकाश शूटिंग फैजाबाद में हुई थी और ज्यादातर अभिनेता लखनऊ के थे। फिल्म प्रदर्शन के बाद फिल्म की स्टारकास्ट के साथ चला सवाल-जवाब का दौर भी बड़ा दिलचस्प रहा। एक दर्शक तो दीर्घा से उठकर मंच तक चला आया और फिल्म निर्माताओं को संवेदनशील मुद्दे पर बेहतरीन कथ्य के साथ फिल्म बनाने के लिए शुभकामनाएं दीं। अब हॉल में मोबाइल नहीं घनघनाते:

लखनऊ में मिर्जा गालिब नाटक का मंचन हुआ। गालिब का किरदार टॉम ऑल्टर ने निभाया था। नाटक के बाद उन्होंने दर्शकों की तालियों के लिए धन्यवाद तो दिया, लेकिन एक शिकायत भी की। मंचन के दौरान सभागार में घनघनाते मोबाइल फोन से कलाकारों का टूटता तारतम्य एक समस्या बन गया था। ऑल्टर साहब अगर दोबारा लखनऊ आएंगे तो संभवत: उन्हें यह शिकायत न हो। फेस्टिवल में फिल्म प्रदर्शन के दौरान एक बार भी किसी का मोबाइल नहीं घनघनाया। हा, सीट खोजने के लिए एकआध बार मोबाइल का टॉर्च जरूर जला।

गंभीर दर्शक, उचित प्रतिक्रिया:

कमर्शियल सिनेमा से इतर कलात्मक दृष्टिकोण से सशक्त इन फिल्मों के दौरान दर्शकों ने भी काफी संवेदनशीलता का परिचय दिया। संभवत: एक सास्कृतिक शहर होने के नाते यहा का दर्शक दृश्य के मर्म को अन्य शहरों की अपेक्षा कुछ अधिक समझता है। जहा हंसने के दृश्य थे वहा ठहाके लगे, मार्मिक दृश्यों में सभागार नीरव हो उठता था और अच्छी संवाद अदायगी पर तालिया भी बजीं।

दर्शकों के लिए रुपहली यादें:

फिल्म कड़वी हवा चल रही थी। अभिनेता संजय मिश्र का उम्दा काम देख लोगों ने तालिया बजाना शुरू ही किया था कि हॉल में उनकी इंट्री हुई। आते ही सीट की बजाए सीढि़यों पर बैठ कुछ देर फिल्म देखी। अंधेरे हॉल में तालियों की गूंज और फोटो के लिए फ्लैश चमकने लगे। फिल्म खत्म होने के बाद उनसे दर्शकों के प्रश्न और संजय मिश्र के रोचक उत्तर हमेशा याद रहेंगे। मनोरंजन के साथ पाठशाला भी:

जेएफएफ में शहर के रंगकर्म से जुड़े दिग्गजों ने भी शिरकत की। अभिनय प्रशिक्षुओं को इनसे मुलाकात और संवाद का मौका मिला। थियेटर वर्कशॉप, निर्देशक और कलाकारों से कायम संवाद से निकलीं बातें सबक सरीखे रहे।


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