Independence Day 2022: अपनी ओजस्वी वाणी से किया था अंग्रेजी सत्ता का डटकर विरोध, लखनऊ के क्रांतियोद्धा थे चंद्रोदय दीक्षित
Independence Day 2022 स्वतंत्रता संग्राम में भारत के छोटे-बड़े स्थानों से अनेक सेनानियों ने आहुतियां दी हैं। ऐसे ही एक निर्भीक सेनानी लखनऊ के चंद्रोदय दीक्षित थे जिन्होंने अपनी ओजस्वी प्रभावशाली वाणी से लोगों में देश प्रेम की अलख जगाने का बीड़ा उठाया और अंग्रेजी सत्ता का डटकर विरोध किया।
लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। स्वतंत्रता संग्राम में भारत के छोटे-बड़े सभी स्थानों से अनेक सेनानियों ने आहुतियां दी हैं। ऐसे ही एक निर्भीक सेनानी लखनऊ के चंद्रोदय दीक्षित थे, जिन्होंने अपनी ओजस्वी प्रभावशाली वाणी से लोगों में देश प्रेम की अलख जगाने का बीड़ा उठाया और अंग्रेजी सत्ता का डटकर विरोध किया।
चंद्रोदय दीक्षित का जन्म आगरा के जैतपुर थाना के रैपुरा दीक्षित नामक गांव में जून 1918 में हुआ। 1918 से 1922 तक कानपुर में रहने के बाद उनका परिवार लखनऊ आ गया। पुत्रवधू सुशीला दीक्षित द्वारा चंद्रोदय दीक्षित के संदर्भ में लिखे लेख के अनुसार, 1927 का वर्ष लखनऊ में विभिन्न ऐतिहासिक गतिविधियों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहा।
अप्रैल में काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गई। दूसरी ओर साइमन कमीशन के भारत आगमन का हर स्तर पर विरोध किया जा रहा था। 1928 में लाला लाजपत राय की शहादत ने भी लोगों को अंग्रेजी सत्ता के विरोध में संघर्ष की प्रेरणा प्रदान की। इन सभी घटनाओं ने चंद्रोदय पर गहरा प्रभाव डाला। वे भी इस स्वातंत्र्य संघर्ष में कूद पड़े।
उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में यह प्रेरणा पिता के फुफेरे भाई वीरेश्वर बाजपेई से मिली थी, जो क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। उन्हें ही चन्द्रोदय अपना गुरु मानते थे और उनके मन में देश प्रेम का बीजारोपण करने में संभवतः उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
खादी वस्त्र पहने की प्रेरणा भी उन्हें अपने चाचा वीरेश्वर बाजपेई से मिली। चंद्रोदय दीक्षित की मित्रता क्रांतिकारी योगेश चन्द्र चटर्जी से हुई। योगेश चन्द्र चटर्जी की क्रांतिकारी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें नजरबंद कर दिया था और उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया। योगेश बाबू से दीक्षित जी की निकटता पर भी पुलिस की नजर थी।
उनके अनशन को समाप्त करवाने के लिए राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और रफी अहमद किदवई ने कई प्रयास किए। योगेश बाबू से दीक्षित की निकटता पर भी पुलिस की कड़ी नजर थी। उन्हीं दिनों चंद्रभानु गुप्त जो विधान सभा के सदस्य थे और जेल में विजिटर भी थे। उनके साथ चन्द्रोदय को जेल में जाने का मौका मिला। गुप्त ने जेल के निरीक्षण के दौरान रसोई घर से रोटी, दाल और झलरा जो कैदियों को दिया जाता था। वह मंगवाकर दीक्षित से कहा-यह रोटी चख लो, यहां आने पर यही खाने को मिलेगी।
जेल की उस रोटी का स्वाद उन्हें 1941 में 11 अप्रैल को चखने को मिला जब उन्हें अंग्रेज सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में नजरबंद कर दिया गया। ये नजरबंदी 13 जुलाई 1945 तक रही। इस अवधि में जेल में छह अप्रैल 1941 को दिल्ली दिवस मनाया गया। जिस कार्यक्रम में दीक्षित जी ने बड़ी निडरता से जेल के भीतर अत्यंत भड़काऊ भाषण दिया। जिसके कारण उन्हें छह महीने का सश्रम कारावास और 50 रुपये जुर्माने की सजा दी गई।
चंद्रोदय दीक्षित ने यह कारावास लखनऊ जिला जेल में काटा था। बाद में उन्हें सेंट्रल जेल में नजरबंद कैदी के रूप में भेज दिया गया। फरवरी 1942 में उन्हें फतेहगढ़ सेंट्रल जेल स्थानांतरित किया गया। अंततः 13 जुलाई 1945 को सजा समाप्त होने पर वे जेल से रिहा होकर घर आए। विदेशी सत्ता के विरोध के लिए फिर उन्होंने पत्रकारिता का रास्ता अपनाया।
समाचार पत्रों के माध्यम से अनेक वर्षों तक वे समाज को दिशा दिखाने का उत्तरदायित्व निभाते रहे। चंद्रोदय दीक्षित ने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं। 13 नवंबर 2002 को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल अपनी अंतिम सांस ली। पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।