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'हजरतगंज' एक सफर इतिहास के पन्‍नों से अब तक... Lucknow News

अब अटल चौक के नाम से जाना जाएगा लखनऊ का हजरतगंज चौराहा।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sat, 17 Aug 2019 07:46 PM (IST)Updated: Sun, 18 Aug 2019 07:50 AM (IST)
'हजरतगंज' एक सफर इतिहास के पन्‍नों से अब तक... Lucknow News
'हजरतगंज' एक सफर इतिहास के पन्‍नों से अब तक... Lucknow News

लखनऊ, जेएनएन। कुछ लम्हे यादों में ठहर जाते हैं। ये जवां-जवां, हसीं-हसीं लखनऊ की सरजमीं भी कुछ ऐसी ही है। जिसने भी कुछ पल यहां बिताए उसके अंदर थोड़ा थोड़ा लखनऊ जरूर समा गया। इसी हर दिल अजीज शहर की धड़कन है -हजरतगंज। हजरतगंज चौराहा अब अटल चौक के नाम से पहचाना जाएगा। जितना समृद्ध गंज का इतिहास है, उतनी ही संपन्न इससे जुड़ीं तमाम यादें भी हैं। ये महज एक स्थान मात्र नहीं,

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रवायत की तरह लोगों के जीवन से जुड़ा है... 

अजब शान और रौनक है तेरी

जो एक बार आता है, तेरा मुरीद हो जाता है...।। 

अहसास-ए-इश्क, मौसम-ए-बहारा लखनऊ 

सितारों के बीच चांद है हमारा लखनऊ 

रवायत और रंगत का क्या कहना 

फिर वही हम और वही हमारा हजरतगंज...।। 

चलिए इतिहास के गलियारे से होते हुए मैं (हजरतगंज) अपने आधुनिक स्वरूप की सैर करवाता हूं। मैं उस दौर का गवाह रहा हूं जब यहां रजवाड़ों और अंग्रेजों की लग्जरी गाडिय़ों के साथ टमटम और घोड़ा गाड़ी भी कदमताल करते थे। चीन, जापान और बेल्जियम के सामान हाथोंहाथ बिक जाते थे। इंडियन कॉफी हाउस समेत तमाम कैफे के किस्से तो सुनाते-सुनाते मैं थक जाऊंगा, पर बातें खत्म नहीं होंगी। बुक डिपो में किताबों के सफहों के साथ अनुभव जुड़ते जाते थे। सिनेमाघरों में फिल्मी के साथ असल जिंदगियों की कहानी नए मोड़ लेती थी। अंग्रेजों के जमाने का मेफेयर सिनेमा हॉल, जहां रोज मॉनिंग शो में अंग्रेजी फिल्में दिखाई जाती थीं। यहां फिल्म देखना हर बार एक अनोखा अनुभव होता था। हॉल के ऊपर ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी में किताबों का अद्भुत संग्रह था। तो वहीं, दूसरी ओर अमीरों का कॉफी हाउस-क्वालिटी रेस्तरां था।

 

इस रेस्तरां की कोन या कोना कॉफी सबसे खास थी, साथ में पेस्ट्री स्टैंड का मजा लेने दूर-दूर से शौकीन यहां आते थे। नीचे राम अडवाणी का बुक स्टोर, जहां अंग्रेजी-ङ्क्षहदी का कोई भी चर्चित टाइटल मिल जाया करता था। वहीं, थोड़ी दूर पर मशहूर किंग-ऑफ चाट, जिसे आज भी बॉलीवुड वाले तलाशते हुए आते हैं। पास में था बक्शी फोटो स्टूडियो, जो उस जमाने में शादी से लेकर बॉलीवुड के लिए पोर्टफोलियो तैयार करने के लिए जाना जाता था। हजरतगंज के बीचोंबीच पुराना वाला यूनिवर्सल बुक डिपो है, जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी बिना किसी लाओ-लश्कर के किताबें खरीदने पहुंच जाती थीं। सड़क के उस पार था हांगकांग चायनीज रेस्तरां। इस रेस्तरां के मुरीद हॉट गार्लिक सॉस और चाउमीन नहीं भूल पाते हैं। बगल में चायनीज डेंटल क्लीनिक, जिसकी मरीजों वाली कुर्सी सड़क से ही दिखाई देती थी। इसके कुछ दूरी पर है जोनङ्क्षहग चायनीज रेस्तरां और चौधरी स्वीट हाउस जहां की चाट और छोले-भठूरे बेहद स्वादिष्ट होते थे। आज भी रॉयल कैफे की बास्केट चाट के शौकीन दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं।

बदलती राजनीति का गवाह कॉफी हाउस 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद हजरतगंज में इंडियन कॉफी हाउस बना। वर्ष 1920 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, चंद्रशेखर, राज नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, फिरोज गांधी, अमृतलाल नागर, यशपाल, भगवती चरण वर्मा व आनंद नारायण मुल्ला ने अपना लम्बा समय यहां बिताया। इसलिए इंडियन कॉफी हाउस में भारतीय राजनीति को करीब से देखा और समझा। कॉफी हाउस के वेटर हमेशा सफेद वर्दी और कलगीदार टोपी में दिखाते थे। इसके साथ ही हजरतगंज में कई और रेस्तरां हुआ करते थे। रंजना रेस्तरां की रहस्यमयी डांसिंग कॉफी जो आपके सामने काफी देर तक कप में समुद्री लहरों की तरह नाचती रहती है। वहीं मद्रास कैफे, जहां का मसाला दोसा और सांभर लाजवाब हुआ करता था। सड़क के उस पार कुकरेजा स्पोर्ट्स शॉप और हजरतगंज के आखिरी छोर पर था बेनबोज। जो मालदार गप्पेबाजों का ठिकाना था। हजरतगंज चौराहे के पास आज जहां जीपीओ है, वहां अंग्रेजों के मनोरंजन के लिए ङ्क्षरग थियेटर हुआ करता था। बाद में ङ्क्षरग थियेटर को एक विशेष अदालत में बदलकर काकोरी ट्रेन कांड में शामिल क्रांतिकारियों का मुकदमा भी यहीं चला। समय के साथ हजरतगंज बहुत बदल गया है। वर्तमान में यहां कई नामचीन शोरूम और रेस्तरां खुल गए हैं। वहीं, मेट्रो ने हजरतगंज की रौनक और गंजिंग के लुत्फ को कई गुना बढ़ा दिया है। 

क्वीन स्ट्रीट की झलक

अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने वर्ष 1827 से 37 में चीनी बाजार और कप्तान बाजार की तरह गंज बाजार की नींव रखी थी। उस दौर में चीन, जापान व बेल्जियम सहित कई मुल्कों से समान यहां बिकने आते थे। वर्ष 1842 से 47 के बीच में नवाब अमजद अली शाह के बाद गंज का नाम बदलकर हजरतगंज कर दिया गया। क्योंकि, लोग प्यार से अमजद अली शाह को हजरत बुलाते थे। बाद में हजरतगंज के बिब्तेनाबाद इमामबाड़े में ही उनको दफ्न भी किया गया। वर्ष 1857 स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने शहर का अधिग्रहण किया और हजरतगंज को लंदन की क्वीन स्ट्रीट की तरह विकसित किया। कई पुरानी मुगल शैली की इमारतों को ध्वस्त कर दिया गया और नए यूरोपियन इमारतें खड़ी कर दीं। वर्ष 1929-32 तक बनी इमारत गाथिक शैली में बनी। इसके अलावा नवाब वाजिद अली शाह से पहले नसीरुदीदन हैदर, गाजीउद्दीन हैदर, नवाब सआदतअली खां ने हजरतगंज के आसपास तारों वाली कोठी, छोटी छतर मंजिल (वर्तमान स्वास्थ्य भवन), दर्शन विलास, लाल बाराहदरी सहित कई खूबसूरत इमारतों का निर्माण कराया था। 

रीगल, फिल्मिस्तान, फिर साहू  

वर्ष 1934 में हजरतगंज के बीचोंबीच इंग्लिश पिक्चर पैलेस बनाया गया, जिसका नाम प्लाजा रखा गया। इसे महाराजा टेहरी गढ़वाल ने बनवाया था। लखनऊ में प्लाजा और मिनर्वा (ओडियन) सोहराब मोदी की मिल्कियत था। उस जमाने में प्लाजा इकलौता सिनेमा घर था जहां लिफ्ट थी। ये लिफ्ट सीधे बालकॉनी में खुलती थी। बाद में प्लाजा बिक गया और उसका नाम रीगल रखा गया। इसके बाद फिर बिका, फिल्मिस्तान कंपनी ने इसे खरीदा और नाम रखा फिल्मिस्तान। फिल्मिस्तान का नाम फिर बदलकर साहू टॉकीज हो गया। 29 जुलाई 2016 से साहू बंद पड़ा है। जो जल्द ही दर्शकों को नए क्लेवर में दिखेगा।


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