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जागरण संवादी : फादर और मदर वाली हिंदी तो कहीं का नहीं छोड़ेगी

मदर बीमार हैैं या फादर बाहर गए हैैं..., जैसी भाषा बोलचाल में तो इस्तेमाल होती है, लेकिन यह प्रयोग मजेदार तो होगा पर ऐसी हिंदी कहीं का नहीं छोड़ेगी।

By Nawal MishraEdited By: Published: Sat, 04 Nov 2017 10:12 PM (IST)Updated: Sat, 04 Nov 2017 10:12 PM (IST)
जागरण संवादी : फादर और मदर वाली हिंदी तो कहीं का नहीं छोड़ेगी
जागरण संवादी : फादर और मदर वाली हिंदी तो कहीं का नहीं छोड़ेगी

लखनऊ (जेएनएन)। मदर बीमार हैैं या फादर बाहर गए हैैं..., जैसी भाषा बोलचाल में तो इस्तेमाल होती है, लेकिन साहित्य में इसका प्रयोग क्या ठीक है..? खास तौर से तब, जबकि हिंदी भाषा के बीच डाले गए शब्द देवनागरी की बजाए रोमन लिपि में हों। यह कुछ मजेदार तो होगा, पर ऐसी हिंदी कहीं का नहीं छोड़ेगी।

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संवादी के दूसरे दिन के दूसरे सत्र में शनिवार को यह सवाल उठे उन नवोदित लेखकों से, जिन्होंने हिंदी में अंग्रेजी को मिलाते हुए नई वाली हिंदी बना दी। हिंग्लिश की उनकी किताबें जब बेस्टसेलर बनीं तो दुनिया की निगाहें भी उधर घूम गईं। नई पीढ़ी और नई हिंदी के ऐसे ही तीन युवा लेखकों दिव्य प्रकाश दुबे, सत्य व्यास और अनु सिंह चौधरी को जब पत्रकार राहुल देव ने जब भाषा के प्रति प्रतिबद्धता, जीवंतता और खतरे के सवालों से घेरा तो लेखकों ने भी ऐसी  हिंदी के पीछे की अपनी सोच के पर्दे खोल दिए। 

सत्य ने जैसे ही कहा कि ऐसे प्रयोग से यदि कोई भाषा खतरे में पड़ती है तो उसे खत्म हो जाना चाहिए, संवादी के सभागार में जैसे करंट दौड़ गया। भाषा को पहचान ठहराते हुए लोगों ने सत्य की बात का विरोध किया तो राहुल देव ने आईना दिखाया कि यहां हिंदी का आग्रह रखने वालों ने अपने घरों में रसोई और कुर्सी-मेज जैसे नाम बदल दिए हैैं। राहुल ने लेखकों से यह सवाल भी किया कि जैसे आप ङ्क्षहदी के बीच अंग्रेजी के शब्दों का रोमन लिपि में प्रयोग कर रहे हैैं, वैसे ही कोई अंग्रेजी या मराठी लेखक दूसरी भाषा को दूसरी लिपि में लिखता है क्या..? हालांकि दिव्य ने अंग्रेजी किताबों में गालिब के शेर से लेकर वेदों की ऋचा तक के शामिल होने की दुहाई दी, लेकिन अनुपात के आधार पर राहुल ने इसे खारिज कर दिया। 

घुमंतू होती लड़कियां : अनु

सबसे ज्यादा शिवानी के लेखन और जीवन शैली से प्रभावित अनु लड़कियों को घुमंतू ठहराते हुए बताती हैैं कि उनकी कहानियां भी इसी घुमंतू प्रवृत्ति से उपजी हैैं। बकौल अनु, वह ऐसा लिखती हैैं कि जिस पर माता-पिता को संतोष व गर्व हो और कुछ समय बाद उनके बच्चे भी जिसे पढ़ सकें। दो पीढिय़ों के बीच का पुल ही उनका लेखन है।

प्रोफेसर नहीं बनाते भाषा : दिव्य

विश्वविद्यालय या प्रोफेसर भाषा नहीं बनाते, आम लोग जैसी बात करते हैैं, वहीं लोक भाषा है। तीन किताबें लिख चुके और लेखन के लिए नौकरी छोड़ चुके दिव्य कहते हैैं कि  हिंदी  की बात करने वाले अधिकांश लोग अपने घर में बच्चों को  हिंदी मीडियम स्कूल भेजने की लड़ाई तक नहीं जीत पाते हैैं। वह कहते हैैं कि  हिंदी  से प्यार है, इसीलिए वह  हिंदी  में लिख रहे हैैं। 

मेरी समस्या पाठकों की कमी है : सत्य

सिर्फ दो किताबें लिखकर बेस्ट सेलर में शामिल हुए सत्य ऐसी हिंदी की स्पष्ट वजह बताते हैैं- ...मेरी समस्या पाठकों की कमी है। हालांकि वह आश्वस्त करते हैैं कि धीरे-धीरे कम करके एक दिन अंग्रेजी को अपनी किताबों से इसे पूरी तरह निकाल दूंगा। विरोध पर वह साफ कहते हैैं कि आप हमसे  हिंदी  के प्रोफेसर वाली उम्मीद कर रहे हैैं।


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