जितने में तकलीफ, अब सिर्फ उतना घुटना ही होगा रिप्लेस Lucknow News
केजीएमयू में अब आधे घुटने का भी किया जा सकेगा रिप्लेसमेंट।
लखनऊ, जेएनएन। घुटने के दर्द से पीडि़त तीस से चालीस फीसद लोगों में घुटने के सिर्फ एक हिस्से में तकलीफ होती है। फिर भी पूरा घुटना बदलना पड़ता था। इसमें दर्द भी बहुत होता था, साथ ही ऑपरेशन के बाद ठीक होने में भी काफी समय लग जाता था। पार्शियल नी रिप्लेसमेंट यानी यूकेआर में सिर्फ उतने ही हिस्से को बदला जाता है, जितने में तकलीफ है। शनिवार को यूकेआर पर आयोजित कार्यशाला में विशेषज्ञों ने ये अहम जानकारियां लोगों के सामने रखीं।
होटल क्लार्क अवध में आयोजित कार्यशाला में यूनिकॉन्डिलर नी रीप्लेसमेंट (यूकेआर) जिसे पार्शियल नी रीप्लेसमेंट भी कहा जाता है, पर विस्तार से जानकारी दी गई। केजीएमयू के घुटना प्रत्यारोपण विशेषज्ञ व कार्यशाला के ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी डॉ. आशीष कुमार ने बताया कि पहले अगर घुटने के एक ही हिस्से में तकलीफ हो फिर भी पूरा टोटल नी रीप्लेसमेंट (टीकेआर) करना पड़ता था। यूकेआर से ऐसे लोगों को फायदा होगा। उन्होंने बताया कि हालांकि यह टीकेआर का पूर्ण विकल्प नहीं है। फिर भी इससे काफी लोगों को फायदा होगा।
खर्च और दर्द दोनों कम
डॉ. आशीष ने बताया कि इस तकनीक में टीकेआर की अपेक्षा लागत कम आती है। साथ ही इसमें मरीज को दर्द भी कम होता है। टीकेआर में यदि 65 से 75 हजार का खर्च आता है तो यूकेआर में 55 हजार के करीब लागत आती है। डॉ. आशीष ने बताया कि केजीएमयू में पहला यूकेआर उन्होंने ही किया है। 55 वर्ष की महिला जिसका प्रत्यारोपण हुआ है वह पूरी तरह स्वस्थ है।
घुटने की मूवमेंट भी अच्छी रहती है
कार्यशाला में जानकारी देते हुए आर्मी हॉस्पिटल चंडीगढ़ के डॉ. विकास कुलश्रेष्ठ ने बताया कि टोटल नी रीप्लेसमेंट में घुटने के ऊपरी और निचले हिस्से काटने पड़ते हैं। साथ ही कार्टिलेज भी काटे जाते हैं। उसके बाद लगने वाले इंप्लांट से घुटने की मूवमेंट सीमित हो जाती है। यूकेआर में फीमर और टिबिया के हिस्से काटे जाते हैं और इंप्लांट लगाया जाता है। इससे घुटने के दोनों हिस्से ऊपर-नीचे और दायें-बायें दोनों ओर आराम से मूव कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि सामान्यत: यूकेआर और टीकेआर दोनों की लाइफ 20 से 25 वर्ष होती है। बाद में फिर प्रत्यारोपण करने की नौबत आई तो यूकेआर के केस में आसानी होती है।
यूकेआर के फायदे
टीकेआर में फीमर कैनाल को खोलना पड़ता है, यूकेआर में नहीं। इससे रीप्लेसमेंट की जटिलता कम हो जाती है।
- यूकेआर में ब्लड लॉस कम होता है।
- इसमें टिश्यू कट कम होता है।
- मरीज को दर्द कम होता है।
- हीलिंग जल्दी होती है।
इन्होंने की थी खोज
डॉ. कुलश्रेष्ठ ने बताया, इंग्लैंड के इंजीनियर जॉन ओ कॉनर व सर्जन जॉन गुडफेलो ने 1971 में यूकेआर की खोज की थी। इसके बाद इस तकनीक में लगातार सुधार होता गया। अंतिम अपग्रेडेशन 2011 में हुआ था, जिसे फेज-3 माइक्रोप्लास्टी कहते हैं। 2016 में यह तकनीक देश में आई।
विशेषज्ञों की कमी है
डॉ. आशीष ने बताया कि अभी इस तकनीक के विशेषज्ञों की देश में कमी है। इसीलिए इस प्रकार की कार्यशालाएं कराई जा रही हैं, जिससे सर्जन इस तकनीक में विशेषज्ञता हासिल कर सकें। शनिवार को हुई कार्यशाला में देश भर के करीब 150 डॉक्टरों ने हिस्सा लिया। कार्यशाला में डॉ. सचिन अवस्थी, प्रो. विनीत शर्मा, प्रो. संतोष कुमार, डॉ. आरपी सिंह व डॉ. प्रणय भूषण मौजूद रहे।