संवादी 2018: 'टेक्नोलॉजी और खुली सोच से संगीत के अच्छे दिन'
संगीत के अच्छे दिन सत्र में मालिनी अवस्थी और विद्या शाह ने रखी बात। मंच पर संवाद के साथ दिग्गजों के सुरों की संगत।
लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। मंच पर थीं गिरिजा देवी-राहत अली खां की शिष्या पद्मश्री मालिनी अवस्थी और शुभा मुद्गल-शांति हीरानंद की शिष्या विद्या शाह। बात संगीत के अच्छे दिन की। संवाद के साथ दो दिग्गजों के सुरों ने संगत की और कहा, वाकई, ये संगीत के अच्छे दिन हैं। टेक्नोलॉजी और खुली सोच से ये संभव हुआ है। समाज में संगीत हमेशा से रहा है, पर पुराने गढ़ टूटने से इसका अच्छा समय आया है। आज का युवा पाश्चात्य के साथ शास्त्रीय संगीत को भी उसी प्रेम से सुनता है। सत्र का संचालन लेखक यतीन्द्र मिश्र ने किया।
शुरुआत शास्त्रीय संगीत की मौजूदा स्थिति और अच्छे या बुरे दिन के मापदंड के प्रश्न से हुई। मालिनी अवस्थी ने कहा, गुरु अच्छा मिले तो समझो शिष्य के अच्छे दिन शुरू हो गए। संगीत में मठाधीशी टूटी है। संगीत में जो बांटने की कोशिश हुई थी, वह खत्म हुआ है। आज हर कोई गा सकता है। माता-पिता बच्चों को गाना-बजाना सिखाना चाहते हैं, अब कोई नचनिया या गवइया नहीं कहता। शास्त्रीय संगीत सीखने वालों की संख्या बढ़ी है। आजादी के बाद भारतीय संगीत को शास्त्रीय संगीत समझा जाता था। आज लोक संगीत के अच्छे दिन हैं। संगीत में वर्ण व्यवस्था और भेद मिटे हैं। ग्वालियर के तानसेन समारोह में भी लोक संगीत सज रहा है।
विद्या शाह ने कहा कि एक दौर आया, जब संगीत में टेक्नोलॉजी आई। इससे संगीत का विस्तार हुआ। शर्म कम हुई और उस्तादों ने भी गाना रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया। आजकल टीवी, इंटरनेट और फिल्म की वजह से शास्त्रीय संगीत कितना चल रहा, यह समझना मुश्किल हो गया है। मापदंड नहीं है, पर उपलब्धता बढऩे से भी संगीत के अच्छे दिन आए हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा के साथ बात आगे बढ़ी। मालिनी अवस्थी ने गुरु राहत अली खां से जुड़ा किस्सा सुनाया। बोलीं, 1987 की बात है। गोरखपुर से लखनऊ आना हुआ। एक दिन उस्ताद घर आए और पिता से अनुमति लेकर अपने गुरु के पास ले गए। वह एक कोठा था, जहां मुझे गुरु के गुरु का आशीर्वाद मिला। उन्होंने उस मौके पर सीखी बंदिश भी सुनाई...
नजराई गई बलमा तोरे अंगना, तोरी पीली पगडिय़ा मोरा हरा ओढऩा...।
विद्या शाह बोलीं, गुरु-शिष्य परंपरा में जीने का सलीका छिपा होता है। जिस दिन गुरु कुछ नहीं सिखा रहा, इसका ये मतलब नहीं कि हम कुछ सीख नहीं रहे। उन्होंने गुरु को स्मरण कर दादरा सुनाया...
सुन री कोयल बावरी, तू क्यों मल्हार गाए है, जिया मोरा लहराए है...
आगे बात टेक्नोलॉजी पर आकर टिकी। विद्या शाह बोलीं, टेक्नोलॉजी ने आज सब कुछ उपलब्ध करा दिया है। एक गाना कई बार सुन सकते हैं। पुरानी बंदिश भी आसानी से मिल जाएगी। इसके लाभ कई हैं, पर एक ही गाना लोगों को बार-बार सुनाया जा रहा है या यूं कहें कि थोपा जा रहा है। क्या बिकना चाहिए, यह भी तय हो रहा है...ऐसा नहीं होना चाहिए। मालिनी अवस्थी ने कहा, हम अपने आप को कई बार सुन सकते हैं, सुधार कर सकते हैं। दुर्लभ चीजें रिकॉर्ड कर सकते हैं। ये सब तकनीक का ही कमाल है। तकनीक से सार्वभौमिकता आई। इसका दूसरा पहलू भी है, दिग्गज आवाजों के बीच औसत गायक भी अच्छा गाकर चले गए, उन्होंने तकनीक का सहारा लिया। तकनीक बेसुरों और बेतालों को भी लय में ले आती है, पर मंच पर नीर-क्षीर का विवेचन हो जाता है। आगे कहा, लता मंगेशकर और पंडित जसराज जैसे सुरों के दिग्गजों पर शोध आधारित किताब आना बताता है कि आज लोगों की संगीत के प्रति जिज्ञासा और जागरूकता बढ़ी है।
इसी के साथ विद्या शाह की आवाज में घुली गजल 'ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...' और मालिनी अवस्थी के सुरों में सजे 'अंदर आओ मियां बनरे...' गीत के साथ एक सार्थक संवाद समाप्त हुआ।