कर्बला में दो मासूमोंं ने भी दी थी शहादत, ताबूत देख छलक पड़ी आंखें lucknow news
कर्बला मुंशी फज्ले हुसैन में कराई गई ताबूत मुबारक की जियारत। नम आंखों से जियारत कर अजादारों ने पेश किया आंसुओं का पुरसा।
लखनऊ, जेएनएन। इंसानियत को मिटने से बचाने के साथ इस्लाम को नई जिंदगी देने के लिए कर्बला में न सिर्फ बड़ों ने अपनी कुर्बानियां दी, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों ने भी अपनी शहादत दी। हजरत इमाम हुसैन अलेहिस्सलाम की बहन जनाब-ए-जैनब के दोनों मासूम बच्चों हजरत औन व हजरत मुहम्मद ने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। गुरुवार को हैदरगंज स्थित कर्बला मुंशी फज्ले हुसैन में इन्हीं दोनों शहजादों की शहादत का गम मनाया गया। अजादारों ने ताबूत मुबारक की जियारत कर रसूल की नवासी को आंसुओं का पुरसा पेश किया।
इमामबाड़ा सैयद तकी साहब में पांचवीं मजलिस को खिताब करते हुए मौलाना सैयद सैफ अब्बास ने कहा कि इस्लाम में लोगों की आसानी के लिए उसूले दीन और फरुवे दीन दो हिस्सों में इस्लाम की पूरी तालीम को बांट कर एक इंसान के खुद की जिदंगी को समझा दिया है। अंजुमन एैनुल अजा की ओर से आयोजित मजलिस को मौलाना तकी रजा ने खिताब किया।
मौलाना ने कहा कि आज पूरी दुनिया आतंकवाद का शिकार है, हर जगह बेगुनाहों का खून बहाया जा रहा है। सैकड़ों साल पहले कर्बला में यजीद नाम के सबसे बड़े आतंकवादी ने नबी की औलादों का बेरहमी से कत्ल कर दिया था। भूखे-प्यासे बच्चों पर भी रहम नहीं दिखाया। कर्बला आतंकवाद की पहली घटना थी, जिसमें जालिमों ने जुल्म की सभी हदें पार की दी थी। आज भी उन्हीं की नस्ल के लोग दुनिया में आतंकवाद फैलाकर बेगुनाहों का कत्लेआम कर रहे हैं। इसलिए हर हुसैनी का फर्ज है कि वह आतंक के खिलाफ एकजुट हो। इमाम का गम आतंकवाद के खिलाफ एक इंकलाब है। मौलाना ने हजरत औन व हजरत मुहम्मद की शहादत का मंजर बयां किया, जिसे सुन अजादारों की आंखे नम हो उठीं। मजलिस के बाद कर्बला परिसर में शहजादों के ताबूत मुबारक की जियारत कराई गई। अजादारों ने नम आंखों से ताबूत मुबारक की जियारत कर आंसुओं का पुरसा पेश किया।
वहीं परचम स्ट्रीट बेल वाला टीला मुफ्तीगंज से ताबूत बरामद हुए। इस दौरान मजलिस को मौलाना सैयद मोहम्मद मेहंदी ने खिताब किया अंजुमन गुलजार ए पंजतन ने नोहा खानी और सीनजनी की।
दहकते अंगारों पर किया मातम
कर्बला के शहीदों के गम में पांच मुहर्रम को हजरतगंज स्थित इमामबाड़ा शाहनजफ में आग पर मातम कर अजादारों ने गम मनाया। या हुसैन, या हुसैन की गूंजती सदाओं के साथ अपने हाथ में हजरत अब्बास अलेहिस्सलाम का अलम मुबारक लेकर अजादार नंगे पांव दहकते अंगारों से गुजरे। न सिर्फ शिया बल्कि हिंंदू अजादारों ने भी आग पर चलकर कर्बला के शहीदों को खिराज-ए-अकीदत पेश किया। वहीं कश्मीरी मोहल्ले में भी आग का मातम मनाया गया। जहां काफी संख्या में अजादारों ने अंगारों पर चलकर कर्बला के शहीदों को याद किया।
इमाम हुसैन की मुहब्बत को दिलों से नहीं निकाली जा सकती : मौलाना वजीहउद्दीन
दरगाह हजरत मखदूम शाहमीना शाह रहमतुल्लाह अलैह में मीनाई एजुकेशनल वेलफेयर सोसायटी के जेरे एहतमाम पांच दिवसीय जिक्रे शोहदा कर्बला का आयोजन किया गया। जिसमें खिताब करते हुए मौलाना वजीहउद्दीन मोहतमिम ने कहा कि हजरत इमाम हुसैन रजि. कर्बला के मैदान में अपने अमल से ये साबित कर दिया कि इस्लाम और शरीअत को मजबूती से पकड़ें रहना चाहिए।
हमारे दिलों से इमाम हुसैन की मोहब्बत को कोई नहीं निकाल सकता। मौलाना ने कहा कि हजरत इमाम हुसैन रजि. की शहादत को कई सदियां गुजर जाने के बाद भी ऐसा मालूम होता है कि आपकी शहादत को अभी कुछ ही साल हुए हैं। दारुल उलूम निजामिया फरंगी महल में 'शुहादाये दीने हक व इस्लाहे माआशरह' के तहत पांचवां जलसा हुआ। जिसमें मौलाना मुहम्मद सुफियान निजामी ने खिताब किया।
मौलाना ने औरतों के अधिकारों पर विस्तार से रौशनी डालते हुए कहा कि मैदान चाहे राजनैतिक हो या व्यापारिक हर मैदान में इस्लाम ने औरतों को उनकी सलाहियतों के अनुसार अधिकार दिए हैं। उन्होने इल्मे दीन पर रौशनी डालते हुए कहा कि हर मुसलमान पर इल्म व दीन हासिल करना अनिवार्य है। वहीं अकबरी गेट स्थित मस्जिद एक मिनारा में शोहदा-ए-इकराम जलसे को खिताब करते हुए कारी मो. सिद्दीक ने कहाकि इसलाम में शहीद का दर्जा बहुत बुलंद है। हजरत हुसैन को कर्बला के मैदान में दुश्मनों में शहीद कर दिया। इसी तरह दरगाह दादामियां में भी जलसे को खिताब किया गया।
हिंंदू भी करते हैं ताजिएदारी व मातम
लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब मिसाल को यहां के हिंंदू-मुस्लिम साथ मिलकर पेश करते हैं। पांडेगंज, गल्ला मंडी निवासी अंकित कुमार भारती समेत कई परिवार मुहर्रम का गम मनाते हैं। पांडेगंज का इमामबाड़े पर काफी संख्या में हिंंदू लोग अजादारी करते हैं, मातम मनाते हैं। अंकित कुमार ने बताया कि हमारी तीन पीढिय़ों से मुहर्रम मनाया जा रहा है। हमारे दादा राजाराम व उनके भाई प्यारेराम व छिद्दन ने यह सिलसिला शुरू किया। उसके बाद मेरे पिता महेश चंद्र भारती से परंपरा मुझे मिली।
वहीं बशीरतगंज के हरीशचंद्र धानुक की पांच पीढ़ी मुहर्रम में अजादारी करती आ रही है। आग पर मातम हो या ताजिएदारी हो शिया समुदाय की तरह यह मुहर्रम केा मनाते हैं। हरीश चंद्र धानुक ने बताया कि उनके पूर्वजों के सहयोग से ही बशीरतगंज में वर्ष 1880 में किशनु इमामबाड़ा स्थापित किया गया। इस इमामबाड़े में साल भर हम ताजिया रखते हैं। बड़ी ताजिया मुहर्रम की सात तारीख को रखते हैं। मुहर्रम में जुलूस निकालना, मातम करना, तबर्रुक बांटना सारे काम हम इमाम हुसैन की याद में करते हैं।