नायाब रचनाओं के रंग से सजा अभिव्यक्ति का उत्सव
दैनिक जागरण संवादी के सातवें सत्र में सजी कविता के रंग की महफिल, नामचीन कवियों रचनाओं से कराया रिश्तों का अहसास, सर्वेश के हास्य रचनाओं ने हंसाया तो तंज ने सोचने पर किया मजबूर।
लखनऊ [डॉ. राकेश राय]। मनुष्य के जीवन में भाव के स्तर पर जो सबसे कोमल है, कविता उसी की अभिव्यक्ति है। शब्द-व्यवहार से कहीं आगे यह ऐसी अभिव्यक्ति है, जिसका स्रोत सुख-दुख का भाव बोध भले होता है मगर संवेदनाओं में गूंथकर यह विविध रंगों में उद्घाटित होती है। कविताओं के कुछ ऐसे ही रंगों को दिखाने के लिए जागरण संवादी के मंच पर सजी 'कविता के रंग' की महफिल। इस महफिल में रिश्तों की गंभीरता का अहसास था तो भावुकता की अभिव्यक्ति भी। लोक की खूशबू थी तो इतिहास की इच्छानुसार व्याख्या के खिलाफ विरोध का स्वर भी। हास्य व्यंग ने गुदगुदाया तो व्यवस्था की दुर्दशा पर तंज ने सोचने के लिए मजबूर भी किया।
संवादी के सातवें सत्र में सजी इस महफिल का संचालन कर रही कवयित्री रश्मी भारद्वाज ने धूमिल की कविता 'भाषा में आदमी होने की तमीज है' सुनाकर कवियों को आमंत्रित करने की शुरुआत की। उनके आमंत्रण पर सबसे पहले माइक संभाला इंदौर से आए कवि आशुतोष दुबे ने। 'प्रेम के लिए जगह जरा कम है, डर के लिए थोड़ी ज्यादा' सुनाकर काव्यपाठ के सिलसिले की शुरुआत की। रविवार की छुट्टी से पहले शनिवार की खुमारी पर जब आशुतोष ने 'शाम से ही खुमारी में आ जाता है शनिवार, बेवजह मन मुस्कुराता है' सुनाया तो श्रोता कविता के शब्दों को अपने अहसास से जोड़ते नजर आए। खुद के किए पर बाद में पश्चाताप करने की आदत को लेकर जब उन्होंने अपनी रचना 'पाश्चात्य बुद्धि' सुनाई तो जुडऩे की रही-सही कसर भी पूरी हो गई। अंत में आशुतोष ने 'एक दिन जब पिता नहीं रहते तो सबको पिता बनना होता है' सुनाकर रिश्तों के अहसास के साथ माइक संचालक रश्मि भारद्वाज को सौंपा तो उन्होंने मां पर अपनी रचना सुनाकर इस अहसास के सिलसिले को आगे बढ़ाया। 'मां हमेशा कहती है जब मैं नहीं रहूंगी, तब भी यहीं रहूंगी' सुनाकर सभी को भावुक कर दिया। बात रिश्तों के अहसास की चल पड़ी थी तो रश्मि स्त्री विमर्श पर 'देवी मंदिर' कविता सुनाकर उसे पूर्णता देने की कोशिश करती दिखीं।
उसके बाद मंच संभाला नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर मिथिलांचल के नवगीतकार बुद्धिनाथ मिश्र ने। फिर तो माहौल में बिखरने लगी लोक रंग की खुशबू। 'धान जब फूटता है गांव में, एक बच्चा दुधमुहां किलकारियां भरता हुआ आ लिपट जाता है हमारे पांव में' सस्वर सुनाकर उन्होंने अहसासों से श्रोताओं को गांव की ताजी हवा में सैर कराई। 'वह हवा पहाड़ी नागिन सी जिस ओर गई, दर्द भरे सागर में मन को बोर गई' सुनाया तो वह संवादी को लोक से जोडऩे की जिम्मेदारी निभाते दिखे। अब बारी थी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर कवि एनपी सिंह की। रिश्तों से लोक की ओर बढ़ते रंग को उन्होंने इतिहास की तरफ मोडऩे की कोशिश अपनी यथार्थवादी रचनाओं से की। उन्होंने इतिहास के उन प्रसंगों पर अपनी कविताओं के माध्यम से सवाल उठाया, जिसमें विरोधभाषी तथ्यों को बड़े गर्व से पिरोया गया है। 'तुमने द्रोपदी के चीर हरण में दुश्शासन की क्रूरता देख ली पर पत्नी को दांव लगाने की महानायकों की नपुंसकता नहीं देखी, भीष्म, द्रौण, कुपाचार्यों की अमानवीय उदासीनता को भी मात्र विवशता कहकर टाला है तुमने' सुनाकर सभी श्रोताओं को इतिहास की व्याख्या की कमियों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। 'जब देखता हूं तो दृश्य पटल पर कौंधती है उपासना स्थलों की रत्नजडि़त प्राचीरें, देखता हूं खुले आकाश का वितान ओड़े यायावर जीवन अभिशप्त अवसादग्रस्त असहाय वंचितों को' जब कवि एन पी सिंह ने सुनाया तो श्रोता उनकी भावनाओं से जुड़ते नजर आए।
इसी गंभीर माहौल में रिश्तों के अहसास वाले गीत लेकर मंच को संभाला गीतकार महेश्वर तिवारी ने। 'एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है, बेजुबान छत-दीवारों को घर दे देता है' और 'यह शरीरों से परे क्या है, हमें जो बांधता है, बिन छुए रह जाएं उंगली फूल को, क्षमा मिलती रही सारी भूल को' सुनाकर उन्होंने श्रोताओं को उन्हीं रिश्तों की गहराई का अहसास कराया, जिसके लिए वह मशहूर हैं। अपनी मशहूर रचना 'धूप में जब भी जले हैं पांव, घर की याद आई' सुनाकर उन्होंने श्रोताओं की मांग भी संवादी के मंच से पूरी की। माहौल गंभीर था, सो हास्य की महती दरकार थी। इस जिम्मेदारी को बखूबी संभाला हास्य व्यंग के नामचीन कवि सर्वेश अस्थाना ने। चलते-चलते व्यवस्था पर कटाक्ष भरे व्यंग से उन्होंने श्रोताओं को खूब गुदगुदाया, जमकर हंसाया। आज की राजनीति और नेता उनकी रचनाओं के निशाने पर रहे। सर्वेश ने जब 'हम अपने मित्र नेता जी के घर गए, देखा नेताजी गुजर गए, हमने उनकी पत्नी से पूछा नेता जी कैसे गुजर गए, पत्नी ने बोला न रस्सी से लटके, न जहर पिया न ही कोई एसिड लिया, लाख मना करने के बावजूद अपने गिरहबान में झांक लिया' सुनाया तो लोगों ने ठहाका लगाकर इस बात तस्दीक की कि उनका इस हास्य व्यंग से पूरा इत्तेफाक है। हास्य व्यंग के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए कवि सर्वेश ने पिछले दिनों कोलकाता और बनारस में हुई पुल दुर्घटना के दोषियों को लेकर अपनी भावनाओं को रचनाओं के माध्यम से श्रोताओं के बीच रखा। 'विभाग ने पुल पर इल्जाम लगाया, सारा सिमेंट और लोहा इसी पुल ने खाया, पुल बहुत घबराया, अपने आप को निर्दोष बताया, हुजूर सारा सिमेंट मैंने नहीं पाया, मेरे हिस्से में तो जरा सा आया, आखिर फैसला पुल के हिस्से आया, सिमेंट पुल ने ही खाया' कविता सुनाकर उन्होंने लोगों को बिगड़ी व्यवस्था को लेकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया।