संवादी 2018 : हर दबी आवाज है मीटू
दैनिक जागरण के संवादी के तीसरे दिन मीटू सत्र में अभियान मीटू के स्वरूप और सार्थकता पर छिड़ी बहस।
लखनऊ [प्रियम वर्मा] । मीटू एक सफल शुरुआत तो है लेकिन मंजिल की कल्पना जरा मुश्किल है। मीटू सत्र के समर्थन और विरोध के सवाल से चर्चा की शुरुआत की अपराजिता शर्मा ने। वक्ता थीं शेफाली वैद्य और स्मिता पारिख। संगीत नाटक अकादमी में संवादी के तीसरे दिन जब मीटू अभियान के स्वरूप और सार्थकता पर बहस छिड़ी तो वक्ता और दर्शकों के बीच संवाद सत्र तक सीमित नहीं था, बल्कि मंच के बाद भी जारी रहा।
अभियान की सार्थकता पर स्मिता पारिख ने कहा कि यह अभियान सिर्फ उन महिलाओं के लिए है जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं, प्रोफेशनल हैं और घर से बाहर निकलती हैं...आज भी ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्हें इस अभियान का न नाम पता है न ही मकसद। इस विचार से थोड़ी अलग सोच के साथ शेफाली वैद्य ने इस अभियान का पहली बार इस्तेमाल करने वाली तराना बुर्क का जिक्र किया जिन्होंने 12 साल पहले न्यूयॉर्क में मीटू शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि तुम अकेली नहीं हो, यह मेरे साथ भी हुआ है। इसके बाद हॉलीवुड अभिनेत्री एलिसा मिलानो के जरिए आज विश्वभर में चर्चा का विषय है।
अब बहस अभियान के इस्तेमाल पर थी। दोनों ही वक्ता इस पर सहमत नजर आए। शेफाली वैद्य ने कहा कि मीटू वो जुबान है जहां किसी भी आवाज को दूसरे ताकतवर सुर से दबा दिया गया हो फिर वो महिला की हो या पुरुष की तो स्मिता पारिख ने अभियान के बने रहने की समर्थता उस खतरे के साथ जताई जो कहीं न कहीं महिला पुरुष के सहज संबंधों और बर्ताव को चुनौती दे रहा है।
सार्थकता के लिए अभियान के स्वरूप पर शैफाली ने कहा कि मैं चाहती हूं कि अगर मेरी बेटी बड़ी हो तो वो उसे वहीं पूरी ताकत के साथ कह सके। दूसरी तरफ बेटे के लिए भी ऐसा माहौल हो जहां सिर्फ लड़का होने पर उस पर लोगों की निगाह न टिके।
चर्चा के प्रमुख बिंदु
अभियान और चर्चा का हिस्सा में सिर्फ महिलाएं ही क्यों?
उत्पीडऩ किसी का भी हो सकता है। आवाज किसी भी दबाई जा सकती है। ऐसे में महिलाओं के साथ पुरुषों को भी सामने आना चाहिए। पुरुषों की आवाज सिर्फ विरोध के लिए नहीं उठनी चाहिए।
मीटू से लड़कों में एक डर पैदा हो रहा है। उन्हें कहा जा रहा है कि
लड़कियों से कहां-कहां पर उचित दूरी बनाए रखने चाहिए?
जिस तरह अभियान का इस्तेमाल महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए है। ठीक उसी तरह इसके गलत इस्तेमाल की संभावना दोनों तरफ से है। आवाज उठनी चाहिए और समर्थन करना चाहिए। उसे पहले गलत या सही ठहराने से पहले आवाज उठना जरूरी है।
कहीं इससे महिला और पुरुष के बीच में गहरी खाई तो पैदा नहीं हो जाएगी?
इसकी पूरी जिम्मेदारी महिलाओं की नहीं है बल्कि पुरुषों की भी है। उन्हें
आगे आना चाहिए। इसकी सार्थकता और सफलता में समग्र समाज की भागीदारी चाहिए होगी। बहुत सालों बाद ही सही लेकिन कोई आवाज उठी है तो उसके साथ खड़ा होना चाहिए।
क्या महिलाओं के विरोध में एक सुर महिला का भी है?
किसी भी अभियान को महिला पुरुष से ऊपर उठकर देखेंगे और स्वीकार करेंगे तो ही वो सफल बन पाएगा। मीटू एक ऐसा अभियान है जिसमें आवाज उठानी है फिर वो महिला की हो या पुरुष की।