Dussehra 2022: सांस्कृतिक और परंपरा की मिठास में लिपटा समृद्धि का दशहरा, तरीके अलग, लेकिन भाव एक
Dussehra 2022 बुराई पर अच्छाई की विजय के पर्व विजय दशमी पर शहर में रावण के पुतले के दहन से पहले आतिशबाजी का चलन काफी पुराना है। रंगबिरंगे मेहताबों और पटाखों के बीच पुतला दहन किया जाता है।
Dussehra 2022: लखनऊ, [जितेंद्र उपाध्याय]। शौर्य और पराक्रम के पर्व दशहरा को लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं। पांच अक्टूबर को होने वाले दशहरे को लेकर बुराई का प्रतीक रावण का पुतला तैयार हो रहा है। अच्छाई के प्रतीक श्रीराम की रामलीलाएं चल रही हैं। एक ओर जहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्श मानव जीवन में एक नया रंग भरते हैं तो दूसरी ओर बुराई और घमंड के प्रतीक रावण का हर ओर तिरस्कार भी होता है। कोरोना संक्रमण काल मेें भले ही आयोजन छोटे स्तर पर हों, लेकिन हर समाज के लोग इसे अपने-अपने तरीके से मनाएंगे।
हर वर्ग अपने तरीके से मनाता है पर्वः इस पर्व को समाज का हर वर्ग अपने तरीके से मनाता है। दशहरे को समृद्धि और ज्ञान की देवी मां सरस्वती से भी जोड़ा जाता है। क्षत्रिय समाज इस पर्व को शौर्य के रूप में मनाता है। इस पर्व पर क्षत्रिय समाज के लोग हथियारों की पूजा करके समाज की कुरीतियों को समाज से भगाने का संकल्प लेते हैं। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। वहीं, मराठी समाज का मानना है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय पर प्रस्थान करना चाहिए।
इस दिन यदि श्रवण नक्षत्र हो तो विजय नहीं रुकती। इसी दिन दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए भेजा था। अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था और शमी वृक्ष से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयकाल में शमी पूजन करने का प्रावधान है।
आतिशबाजी के बीच होता है रावण का दहनः बुराई पर अच्छाई की विजय के पर्व विजय दशमी पर शहर में रावण के पुतले के दहन से पहले आतिशबाजी का चलन काफी पुराना है। रंगबिरंगे मेहताबों और पटाखों के बीच पुतला दहन किया जाता है। सितारा, रागिनी, कुमकुम चंदाहार और फिरकी माला जैसे नामों की आतिशबाजी का उल्लास आसमान को रंगीन बनाता है।
उल्लास और समृद्धि का त्योहारः गुजराती समाज के लोग गरबा के माध्यम से उल्लास का पर्व मनाते हैं। नवरात्र के दिनों में डांडिया होती है, लेकिन दशहरे के दिन कन्याओं के सिर पर रंगीन घड़ा रखा जाता है और समृद्धि की देवी के रूप में उनकी पूजा की जाती है। गुजराती समाज परेश पटेल ने बताया कि गरबा नृत्य खुशी और समृद्धि की कामना के लिए होता है। इस दिन खास पकवान फाफड़ा और जलेबी का सेवन किया जाता है। नए कपड़ों के साथ ही इस दिन विशेष पकवान जैसे खीर, हलवा और मालपुवा के साथ ही रायता बनाया जाता है। पपीते की चटनी का प्रयोग भी खाने में इस दिन जरूर होता है।
मराठी समाज करता है औजारों की पूजाः दशहरे के दिन ही मराठा शिवाजी ने औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष का एलान किया था और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था। उन्हीं की याद में मराठी समाज के लोग अस्त्र-शस्त्र के साथ ही औजारों की पूजा करते हैं। मराठी समाज के उमेश पाटिल ने बताया कि दशहरे के दिन मराठी लोग विश्वकर्मा पूजा की भांति औजारों की पूजा करते हैं। दुकानें बंद रहती हैं और नए कपड़े पहन कर एक दूसरे के घरों में जाते हैं और बधाई देते हैं।
इसलिए कहते हैं विजयदशमीः दशहरे के पर्व को विजयदशमी भी कहते हैं। आचार्य शक्तिधर त्रिपाठी ने बताया कि मां भगवती का एक नाम विजया भी है। शुंभ निशुंभ के संहार के बाद मां दुर्गा को 'विजया' के नाम से भी जाना जाने लगा था। उन्हीं के नाम से इस दिन को 'विजयदशमी' भी कहते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इस दिन को विजय दशमी कहते हैं।
पर्वतीय समाज की निकलती है शोभायात्राः उत्तराखंड में भगवान के प्रतीकों के साथ ही मनोरंजन के लिए कार्टून और जोकर का रूप में धारण किए पात्रों के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। अल्मोड़ा में यह खास पर्व मनाया जाता है। राजधानी में पांच स्थानों पर होने वाली उत्तराखंड की रामलीलाओं में ऐसा जुलूस निकाला जाता है। पर्वतीय महापरिषद के अध्यक्ष गणेश चंद्र जोशी ने बताया इस बार जुलूस निकाला जाएगा। प्रतीक स्वरूप गायन शैली की रामलीला का मंचन पांच तक चलेगा।
बच्चे का होता है पहला मुंडन संस्कारः दशहरे के दिन सिंधी समाज की ओर से बच्चों को पहला मुंडन संस्कार किया जाता है। संस्कार के दौरान समाज के लोगों को दावत दी जाती है। उप्र सिंधी अकादमी के पूर्व उपाध्यक्ष नानकचंद लखमानी ने बताया कि सदियों पुरानी परंपरा अभी भी चल रही है। राजधानी के शिव शांति आश्रम में सामूहिक मुंडन कार्यक्रम होते हैं। मान्यता है कि बुराई पर अच्छाई के विजय के पर्व पर इसका आयोजन पहली संतान होने पर परिवार की ओर से किया। लोग घरों में परिवार के साथ आयोजन करेंगे।
बंगाली समाज का सिंदूर खेलाः मां दुर्गा के पूजन के बाद इस दिन मां की विसर्जन यात्रा निकलती है। विसर्जन यात्रा से पहले सुहाग की कामना के लिए महिलाएं एक दूसरे को सिंदूर लगाकर मां का आशीर्वाद लेती हैं। बंगाली समाज की प्रिया सिन्हा ने बताया कि पांच दिनों के लिए मां अपने मायके आती हैं। पंडालों में पूजन के बाद अंतिम दिन सिंदूर लगाकर मां को ससुराल के लिए विदा किया जाता है। विदाई से पहले एक दूसरे को मिठाई खिलाकर महिलाएं खुशियां मनाती हैं। फिर सिंदूर से एक दूसरे की मांग भरती हैं। मां के विसर्जन से पहले मां के कान में गुप्त रूप से मन्नत मांग जाती है। सदियों पुरानी परंपरा वर्तमान समय में भी नजर आती है।