'धर्मयुग' में उपन्यास धारावाहिक से बनीं घर-घर की लेखिका, डा. सूर्यबाला को मिलेगा भारत भारती सम्मान
पांच लाख रुपये के भारत भारती सम्मान के लिए चुनी गईं डा. सूर्यबाला ने कहा- यश के लिए नहीं सुख के लिए किया लेखन। धर्मयुग घर-घर जाती थी और उसके जरिए मैं भी घर-घर की लेखिका बन गई।
लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। डा. सूर्यबाला स्वयं को समीक्षकों की नहीं, मर्मज्ञ पाठकों की लेखिका कहती हैं। अपनी सफलता का श्रेय भी उन्हीं पाठकों को देती हैं, जो कई वर्षों से सहर्ष उनके साथ हैं। वह अपने सृजन के सफर में डा. धर्मवीर भारती का नाम लेना भी नहीं भूलतीं। बताती हैं, पहला उपन्यास 'मेरे संधि पत्र' धर्मवीर भारती को इतना पसंद आया कि उन्होंने 'धर्मयुग पत्रिका में 12 किस्तों में उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित किया। तब धर्मयुग घर-घर जाती थी और उसके जरिए मैं भी घर-घर की लेखिका बन गई। डा. सूर्यबाला कहती हैं, मैंने यश के लिए नहीं, हमेशा सुख के लिए लेखन किया।
पैदाइश तो मिर्जापुर की रही, पर बचपन से लेकर विवाह तक का समय वाराणसी में बीता। आर्य महिला विद्यालय वाराणसी से कक्षा छह से लेकर बीए तक की शिक्षा पूरी की। सारे संस्कार वहीं से मिले। पिता शौकिया लेखन करते। जीजी वीर बाला वर्मा को भी लिखने का शौक था। डा. सूर्यबाला कहती हैं, आठ वर्ष की उम्र से ही मेरा सृजन का सफर शुरू हो गया था। पहली कविता बांसुरी लिखी। प्रारंभिक रचनाएं उस समय की सम्मानित पत्रिकाओं में छपीं।
सृजन के सफर में विवाह के बाद वह समय भी आया जब लेखन से पूरी तरह से दूरी हो गई थी। पति और परिवार में इतना सुख मिला कि मैं उसी में लिप्त हो गई। लिखना छूटा, पर पढऩा जारी रहा। पत्रिकाएं पढ़ती। उसी समय सारिका पत्रिका में निर्गुण जी की लिखी एक कहानी पढ़ी। मैंने उस प्रेम कहानी पर हास्य विनोदी प्रतिक्रिया भेजी, जो संपादक कमलेश्वर जी को बहुत पसंद आई। उन्होंने छह-सात वर्ष की अलेखिका गृहिणी को पत्र लिखा कि आप की रचना देखी। मुझे लगता है कि आप नियमित लिखें तो हिंंदी को आपसे अच्छी रचनाएं मिल सकती हैं। आप हमें पढऩे के लिए रचनाएं भेजें। वहां से एक दूसरी शुरुआत हुई।
जब सारिका में मेरी पहली कहानी छपी, उसके तीन चार महीने बाद धर्मयुग में पहला व्यंग्य छपा। इसके तीन वर्ष बाद पहला उपन्यास मेरे संधि पत्र आया। 'यामिनी-कथा', 'अग्निपंखी', 'सुबह के इंतजार तक 'दीक्षांत' सभी उपन्यासों पर अलग-अलग पत्रिकाओं में धारावाहिक आया।