अटल बिहारी वाजपेई के व्यक्तित्व को नमन करते हुए बनाई 90 मिनट की डाक्यूमेंट्री : “हेरिटेज ऑफ थ्राल”
फिल्म निदेशक प्रज्ञेश कुमार सिंह ने बताया कि कोलकाता के हाथ रिक्शाचालकों पर आने वाली फिल्म हेरिटेज आफ थाल के पीछे असल प्रेरणा अटल बिहारी बाजपेई जी ही थे।
लखनऊ (जागरण संवाददाता)। दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी करोड़ों लोगों की प्रेरणा के स्रोत हैं। देश-विदेश में उनके चाहने वाले अलग-अलग तरह से श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। इसी कड़ी में अटल बिहारी वाजपेई के व्यक्तित्व को नमन करते हुए लखनऊ के मशहूर फिल्म निर्माता प्रज्ञेश कुमार सिंह ने बाजपेई जी से जुड़े अपने संस्मरण साझा किए। सिंह बताते हैं कि कोलकाता के हाथ रिक्शाचालकों पर आने वाली फिल्म हेरिटेज आफ थाल के पीछे की असल प्रेरणा अटल बिहारी बाजपेई जी ही थे। उन्होंने बताया कि 1947 में लिखी उनकी कविता आजादी अभी अधूरी है में कोलकाता के फुटपाथों पर रहने वाले लोगों के दुख दर्द के बारे में बात की गई थी। इसी कविता को पढ़कर उनका हृदय करुणा से भर गया। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के बारे में जानने समझने का प्रयास किया तो पता चला कि आजादी के इतने सालों बाद आज भी इस महानगर में कई सारे लोग वैसे ही फुटपाथ पर जीवन बिताते हैं। बाद में सिंह ने कोलकाता के इन्हीं बेघर और कमजोर तबका जिनका जिक्र वाजपेई जी ने अपनी कविता में किया है, में से एक हाथ रिक्शा चालकों के जीवन पर डाक्यूमेंट्री बनाने का फैसला किया।
फिल्म बनने के दौरान ही पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह, चले गए। यह अटल जी की ही प्रेरणा थी कि लखनऊ के युवा फिल्मकार प्रज्ञेश सिंह ने कलकत्ता के फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले हाथ रिक्शा चालकों पर बना डाली 90 मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म।
जी हां, छोटी सी गुजारिश जैसी चर्चित शार्ट फिल्म के निर्माता प्रज्ञेश कुमार बताते हैं कि 2002 में अटल जी की कविता “आजादी अभी अधूरी है” जो उन्होंने 15 अगस्त 1947 में लिखी थी, ने मन पर ऐसा असर डाला कि निकल पड़े यह जानने कि कौन है कोलकाता के फुटपाथों पर आंधी पानी सहने वाले लोग, कौन हैं, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री को भावुक कर दिया ? जाने पर ज्ञात हुआ कि आंधी पानी सहने वालों में अधिकांश हाथ रिक्शा चालक थे। बस हाथ रिक्शा चालकों के दर्द को पर्दे पर उतारने की आरजू तड़प उठी या यूं कहें कि यह संकल्प बन गयी, सही समय आया तो काम शुरू किया | हेरिटेज ऑफ थ्राल नाम से बन रही फिल्म की बुनियाद में अटल की कविता से उपजे जज्बातों, सवालों की ही प्रेरणा है, जो 21वीं सदी के अतुल्य भारत से संवाद करती है। फिल्म का प्रोमो सितंबर के अंत में जारी किया जाएगा और अक्टूबर में फिल्म रिलीज होगी।
लखनऊ के निर्माता निर्देशक प्रज्ञेश सिंह ने बताया कि उन्हें फिल्म हेरिटेज ऑफ थ्राल की शूटिंग दो चरण में हुई, पहला चरण एक अप्रैल से 12 अप्रैल के बीच और दूसरा चरण छह से 15 अगस्त को पूरा हुआ| कोलकाता से जब शूटिंग टीम जब लखनऊ पहुंची तो पता चला कि फिल्म के प्रेरणास्रोत पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी इस दुनिया को अलविदा कह गए।
कलकत्ता में फिल्म हेरिटेज ऑफ थ्राल की शूटिंग के दौरान मिले अनुभवों को साझा करते हुए प्रज्ञेश कहते हैं कि अटल जी का प्रधानमंत्री रहते हुए यह कहना कि...आज़ादी अभी अधूरी है, बिलकुल सही जान पड़ता है कोलकाता की सड़कों पर बैलों की माफिक हाथ रिक्शा में जुते हुए रिक्शा चालकों द्वारा इंसान को ढोते हुए देख कर।
डाक्यूमेंट्री फिल्म हेरिटेज ऑफ थ्राल के निर्देशक प्रज्ञेश सिंह जो लखनऊ से हैं, अपनी फिल्म के प्रेरणा स्रोत के महानिर्वाण पर शोक व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अटल जी का शुमार उन व्यक्तिवों में था जो अपने जीवन काल में ही संस्थान के रूप में स्थापित हो जाते हैं। उनका लिखा, उनका कहा, उनका किया, उनका संघर्ष, उनका अनुभव, उनका संस्मरण...सब कुछ समाज, सभ्यता और संस्कृति की अतुल्य धरोहर बन जाता है और इन धरोहरों के गोमुख से प्रसवित वैचारिक गंगा न जाने कितनी अद्भुत चेतनाओं, अद्वतीय विचारों का सृजन करती हैं। न जाने कितनी सामान्य प्रतिभाएं, ऐसे ही व्यक्तित्वों की वैचारिक यात्रा की सह पथिक बन ऐतिहासिक एकलव्य बन जाती हैं। साधारण से असाधारण के सृजन शिल्प में सक्षम होने के कारण ही ऐसे व्यक्तित्वों को संस्थान कहा जाता है। मेरी फिल्म हेरिटेज ऑफ थ्राल अटल जी की कलकत्ते के फुटपाथों पर, आँधी-पानी सहने वालों के प्रति संवेदना को श्रद्धांजलि है।
उस कविता का कुछ अंश इस प्रकार है :
कलकत्ते के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के, बारे में क्या कहते हैं।
पंद्रह अगस्त का दिन कहता, आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है।
प्रज्ञेश सिंह की पिछली फिल्म "छोटी सी गुजारिश" ने कई पुरस्कार बटोरे थे वृत्तचित्र (डाक्युमेंटरी) का नाम हेरिटेज ऑफ थ्राल रखा है।यह रिक्शा चालकों के जीवन पर प्रकाश डालती है | यह वृत्तचित्र अंग्रेजों के समय से चली आ रही एक कुरीति पर आधारित है जिसमे आज इक्कीसवीं सदी के भारत में जानवरों की जगह इंसानों के उपयोग होते रिक्शा आजादी के अधूरेपन का जीता जागता उदाहरण है ।