मेघों से इस शख्स में दिखा ऐसा प्रेम, नाम में ही जोड़ा मेघ
67 साल के कवि घनानंद पांडेय मेघ संगीत से सकारात्मकता ऊर्जा का संचार कर रहे हैं। दैनिक जागरण अपने विशेष कॉलम कलाकार के जरिए आपको इनसे रूबरू करा रहा है।
लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। उम्रदराज चेहरे पर सजा उत्साह तो देखिए। ये लखनऊ के ही 67 वर्षीय कवि घनानंद पांडेय "मेघ" हैं। बादलों से प्रगाढ़ प्रेम ऐसा कि नाम में ही "मेघ" जोड़ लिया। आजकल मानसून का बेसब्री से इंतजार कर रहे। इठलाते बलखाते मेघों को देख प्रफुल्लित हो उठते हैं। मानसून की तारीफ में कहते हैं, वसंत को ऋतुराज कहा जाता है, पर ऋतु चक्र की धुरी तो मानसून ही है। मानसून से होने वाली बारिश भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार भी है। गरमी से त्रस्त धरती पर रिमझिम फुहारें पड़ती हैं तो प्रकृति नवश्रृंगार कर जीवन संगीत सुनाती है। इस संगीत से सकारात्मकता का संचार होता है। यही सकारात्मकता हमें ऊर्जावान बनाती है। घनानंद जी को देखने-सुनने के बाद हम यही कहेंगे, आप भी इनकी तरह मेघों से खूबसूरत रिश्ता कायम कर प्रसन्नचित्त रहिए। गंभीर चिंतन बहुत हुआ! अपने अंदर के शरारती बच्चे को जिंदा रख नादानियों का भी कुछ लुत्फ लीजिए।
जित देखूं, तित व्यंग्य
साहित्य अक्षयवट है। इसकी असंख्य शाखाओं में से एक है, हास्य-व्यंग्य। कोरोना महामारी के बढ़ते मामलों के साथ ही हास्य-व्यंग्य का ग्राफ भी बढ़ता जा रहा। विषम परिस्थिति में भी पूरी ठसक के साथ हास्य-व्यंग्य लिखना और ऑनलाइन बांचना हो रहा। व्यंग्यकार अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा प्रयोग कर रहे। अच्छी बात ये है कि उन्हें पाठक औंर श्रोता दोनों ही मिल रहे। जहां कुछ लोगों का कहना है कि कोरोना काल में लेखकीय चुनौतियां बढ़ी हैं, वहीं अपने व्यंग्यकारों के लिए तो जैसे विषय की कोई कमी ही नहीं रही। जित देखूं, तित व्यंग्य। अच्छा भी है! कम से कम कोरोना से खौफजदा चेहरों पर हास्य-व्यंग्य से मुस्कान तो सज रही। हम भी आपके कायल हैं। बस आग्रह इतना है कि व्यंग्य सबसे पहले खुद के लिए होता है। ये सर्वप्रथम अपने आप पर हंसने की कला भी है। लिहाजा किसी अप्रत्याशित टिप्पणी पर भी बेहिसाब मत बरसिए।
वो प्रतिक्रिया पिपासु थे, हमने भी जवाब दे दिया
किसी और के बारे में नहीं कह सकते, पर लखनऊ वाले फिल्म गुलाबो सिताबो को देखने के लिए खासा उत्साहित रहे। उत्साह लाजिमी भी है! फिल्म अपने शहर में जो शूट हुई है। उत्साह चौगुना होने की एक और वजह ये कि इसमें तमाम स्थानीय कलाकारों को भी अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का मौका मिला। यहां तक तो सब ठीक रहा, पर समस्या तब खड़ी हुई, जब एक स्थानीय कलाकार ने फिल्म में अपने काम के बारे में हमारी प्रतिक्रिया जाननी चाही। फिल्म तो हम देख चुके थे, पर वो हमें कहीं दिखे नहीं। उनके चक्कर में दोबारा फिल्म गौर से देखनी पड़ी। भीड़ में एक जगह वो भी खड़े दिखे। उनको फिल्म में बोलने का मौका भी नहीं मिला था। वो प्रतिक्रिया पिपासु थे, हमने भी जवाब दे दिया, भीड़ में शालीनता से खड़े होकर अापने लखनवी तहजीब को बचाने का उम्दा काम किया।
जहां न पहुंचे रवि, वहां भी पहुंचे अपने कवि
कहते हैं, सूर्य की किरणें भी जहां नहीं पहुंच पातीं, वहां कवि की कल्पना पहुंच जाती है। कोरोना काल में तो कवियों की कल्पना शक्ति और तीक्ष्ण हो गई है। महामारी के इस विकट समय में जब हर कोई पड़ोस के घर पर भी जाने से कतरा रहा, ऐसे वक्त में भी अपने कविजन रचनाशीलता की मानसिक शक्ति के पंखों पर देश-विदेश का भ्रमण कर रहे। सोशल मीडिया पर अपनी लोकेशन भी अपडेट कर रहे। उन्होंने हमें भी अपने आगामी साप्ताहिक कवि सम्मेलनों की सूची भेजी थी। एक दिन बाराबंकी तो अगले ही दिन न्यूयॉर्क। तीसरे दिन हरदोई तो चौथे दिन दुबई। पांचवे दिन देश वापसी कर सीतापुर की काव्य गोष्ठी, छठे दिन ओमान का कवि सम्मेलन। अंतिम दिन लखनवी महफिल के नाम। हमने मुस्कुराते हुए इल्तिजा की, हमें भी ले चलिए। तो वो बोले, कोई टेंशन नहीं! बस आप भी हमारी तरह जूम एप डाउनलोउ कर लीजिए।