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मैडम के खास मातहत, जगजाहिर हो चुके महान कामों को कर रहे आबरा का डाबरा छू

खास मातहत उनके जगजाहिर हो चुके महान कामों को शासन से छिपाने के लिए इन फाइलों को आबरा का डाबरा छू कर रहे हैं।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Fri, 07 Aug 2020 02:48 PM (IST)Updated: Fri, 07 Aug 2020 02:48 PM (IST)
मैडम के खास मातहत, जगजाहिर हो चुके महान कामों को कर रहे आबरा का डाबरा छू
मैडम के खास मातहत, जगजाहिर हो चुके महान कामों को कर रहे आबरा का डाबरा छू

लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। संगीत शिक्षा की बगिया ने आजादी की सांस ली है। 11 वर्षों से एकछत्र राज कर रहीं सुरमयी आवाज पर मिजाज गरम वाली मैडम से सुरों की बगिया मुक्त हो गई है। इस बार मैडम का मराठी कनेक्शन कार्ड भी नहीं चला। चले भी क्यों! कुर्सी पर काबिज चेहरा बदलने के साथ ही मैडम की सत्ता भी उलट गई। मैडम के गौरवशाली इतिहास के कारण उन्हें राज्यपाल द्वारा निष्कासन का सम्मान दिया गया। वो इस सम्मान के साथ आजकल अपना कुछ खास सामान (गोपनीय फाइलें ) जो उनकी यश कीर्ति में और भी वृद्धि कर सकता है, उसे भी झपटने की फिराक में हैं। सुना है उनके खास मातहत उनके जगजाहिर हो चुके महान कामों को शासन से छिपाने के लिए इन फाइलों को " आबरा का डाबरा छू" कर रहे हैं। देखना है कि कितनी जल्दी पुलिस प्रशासन हरकत में आकर इस 'नए फाइल घोटाले' के बाजीगरों को धर दबोचती है।

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गंभीरता का गमछा

हास्य रस परेशान है कि वो कहां से निकले। हंसी-ठिठोली के साथ जागरूकता का संदेश नहीं दे सकते, इसलिए हंसोड़ चेहरे भी गंभीरता का गमछा ओढ़े हैं। गमछे को इतना एहतियात से बांधा है कि हंसने से फंसने का कोई मौका नहीं। खासकर सोशल मीडिया के अति सक्रिय सुधीजनों को संबोधित करते वक्त। महामारी पर बात करते हुए हमेशा अलर्ट मोड ऑन रहता है कि कहीं आदतन हंसी की फुलझड़ी और पटाखे न छूट पड़ें। सच मानिए, गांभीर्य संबोधन सरल काम नहीं। आईने के सामने घंटों अभ्यास करना पड़ता है। फ्लैश मारती बत्तीसी पर शटर गिराना होता है। एक झटके में नहीं, लफ्जों को हौले-हौले आजाद करना पड़ता है। इतने भर से काम नहीं चलता, फ्रिकमंदी दिखाने के लिए मुंह भी लटकाना होता है। ठहाकों की दुनिया के बाशिंदों के लिए अजब मुसीबत है, लेकिन चेहरे पर गंभीरता का गमछा वक्त की जरूरत है।

जब रक्षक बहन के दर पर पहुंचे व्यंग्य विभूषण

व्यंग्य विभूषण ने अनोखे अंदाज में रक्षाबंधन मनाया। रक्षासूत्र खरीदा और बहन के पास पहुंचे। कविवर ने बहन की कलाई पर रक्षासूत्र बांधा और बोले-बहना मेरी, राखी के बंधन को निभाना। बहन ने भी संकल्पित सुर में कह दिया- मैं वचनबद्ध हूं भैय्या... आपके सम्मान की रक्षा के लिए। कुत्सित इरादे से छलने वाली दुष्ट नारी के झूठे आराेपों से व उसके द्वारा सृजित कानूनी आतंकवाद से आपकी सुरक्षा करने का वचन देती हूं। कविवर द्वारा राखी बांधने की तस्वीर के साथ वचन की ये पंक्तियां सोशल मीडिया पर छाई रहीं। हमारी भी इस पर नजर पड़ी। जेहन में सवाल कौंधा कि बेधड़क होकर 'लड़कियां बड़ी लड़ाका होती हैं...' लिखने वाले निर्भीक कविवर नारी से डरने लगे। हमने उनसे पूछा भी, पर वो मुस्कुरा कर टाल गए। उनकी इस अदा पर हमें मशकूर कन्नौजी का शेर याद आ गया...अंदर-अंदर कितने ही हम जख्मी हों चेहरे पर मुस्कान सजानी पड़ती है।

नये-नवेले लेखक की कागजों की गड्डी

लखनऊ कलम और कला के लिए उर्वरा धरती रही है, आज भी है। पाठक का पता नहीं, पर हर तीसरा शख्स लेखक है। किताबें खूब छपती हैं, पर बिकती नहीं। बिकने की पड़ी भी किसे है। किताबें तो लिखी जा रहीं, ताकि अनुदान पा सकें। वहीं, कुछ का सृजन पुरस्कार रूपी लक्ष्य पर निशाना जैसा है। इसी जुगत में दिमागी कचरे को किताब की शक्ल देने की तैयारी जोर-शोर से है। आखिर आपदा में अवसर का अधिकार तो लेखक वर्ग को भी है। इसी आपदा को आधार बनाकर जो समझ में आया वो लिखकर नये-नवेले लेखक महोदय ने कागजों की गड्डी तैयार की है। दर-दर दस्तक देकर वो गड्डी को फेंट भी रहे हैं। एक प्रकाशक पैसा लेकर किताब छापने को तैयार भी हो गए। प्रकाशक खोजने का पहला चरण तो पूरा हुआ। अब वो दूसरे चरण मतलब अनुदान और पुरस्कार की खातिर चरण वंदना का अभ्यास कर रहे।


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