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वह भूली दास्तां फिर याद आ रही

लोगों को पसंद आ रहा कहानी या किस्से को अलग अंदाज में कहने की कला। इस कारण शहर में बढ़ रहा किस्सागोई व दास्तांगोई का सिलसिला।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sun, 16 Sep 2018 03:42 PM (IST)Updated: Sun, 16 Sep 2018 06:23 PM (IST)
वह भूली दास्तां फिर याद आ रही
वह भूली दास्तां फिर याद आ रही

लखनऊ (जुनैद अहमद)। बहुत दूर गांव में एक लड़का रहता था, जिसकी दुनिया अलग थी, एक दिन उसने ख्वाब देखा फिर वो उस दुनिया में चला गया, जहां पर प्यार का इस्तेमाल नफरत के मकसद से किया जाता था... कुछ ऐसे ही किस्सों को अपनी आवाज में दिलचस्प तरीके से बयां करने की कला किस्सागोई कहलाती है। रेडियो से लेकर प्रेक्षागृहों तक इस तरह के आयोजन पिछले कुछ सालों में काफी बढ़े हैं। इसकी वजह किस्सागाई की तरफ लोगों का बढ़ता हुआ रुझान है।

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लखनऊ के कई किस्सागो ने शहर का नाम देश-विदेश में रोशन किया है। अहमद हुसैन कमर, मो. हुसैन जाह, अंबा प्रसाद रसा का नाम आज भी किस्सागोई, दास्तांगोई की दुनिया में बड़े अदब से लिया जाता है। इनके कहने और बताने का ढंग लोगों को काफी पसंद आता था।  मीर बाकर अली देहलवी, अभिनेता पंकज कपूर व किस्सागो नीलेश मिश्रा समेत हिमांशु बाजपेयी अस्करी नकवी व दिवंगत अंकित चड्ढा ने भी किस्सागोई से शहर के लोगों को आनंदित किया है। एक बार फिर शहर के लोग अपने जीवन की यादों को सुनना चाहते हैं, जिसके कारण बरसों पुराना किस्सागोई का दौर एक बार फिर वापस लौट रहा है।

बहुत पुरानी है परंपरा

किस्सागोई की एक लंबी और पुरानी परंपरा रही है, लेकिन आधुनिकता के दौर में ये किस्सागोई बस दादी-नानी की कहानियों और बच्चों के मनोरंजन के साधन तक ही सीमित होकर रह गई, लेकिन मौजूदा वक्त में एक बार फिर किस्सागोई का दौर लौट रहा है।

श्रोताओं को भा रही 

शहर में सनतकदा, बेवजह संस्था समेत कई संस्थाएं हैं, जो किस्सागोई व दास्तांगोई का आयोजन कराती हैं। जिसमें उम्मीद से ज्यादा दर्शक हिस्सा लेते हैं। शहर में आयोजित बड़े-बड़े फेस्टिवल में भी किस्सागोई व दास्तांगोई की महफिलें सजती हैं। यहां के किस्सागो, दिल्ली, मुंबई, पुणे, उत्तराखंड समेत कई राज्यों में किस्सागोई कर रहे हैं।

अमृतलाल नागर भी किस्सागोई अंदाज में लिखते थे

मशहूर इतिहासकार योगेश प्रवीन भी किस्सागोई के अंदाज में ही लिखते हैं। उनकी किताब डूबता अवध में उनकी यह कला दिखाई देती है। वह बताते हैं कि बातों को रोचक अंदाज में कहना किस्सागोई व दास्तांगोई है। किसी एक किस्से को सुनाना किस्सागोई, और कई किस्सों को मिलाकर सुनाना दास्तांगोई कहलाता है। अमृतलाल नागर भी किस्सागोई अंदाज में लिखते थे, उन्होंने नवाबी मसनक और हम फिदा-ए-लखनऊ जैसे किताबें किस्सागोई अंदाज में लिखी है। वह कहानी कहना और सुनना दोनों पसंद करते थे।

लखनऊ के लिए अंजान नहीं

मशहूर युवा किस्सागो हिमांशु बाजपेयी ने बताया कि किस्सागोई, दास्तांगोई हमारे शहर-ए-लखनऊ के लिए अंजान नहीं है। बरसों से इस कला का प्रदर्शन होता रहा है, हां बीच के कुछ सालों तक यह गायब सी हो गई थी। लेकिन मौजूदा समय में एक बार फिर से किस्सागोई का दौर लौट रहा है। पिछले आठ-दस सालों में फिर से इसका क्रेज बढ़ गया है। अब किस्सागोई प्रोफेशन के तौर पर विकसित हो रही है। मैं देश के विभिन्न शहरों में किस्सागोई करने जाता हूं।

सिर्फ जुबान का हुनर है

किस्सागो अस्करी नकवी ने बताया कि किस्सागोई, दास्तांगोई में कोई ताम-झाम नहीं होता है। न कोई साउंड, न ही लाइट बस जुबान का हुनर है, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने करने का जरिया होता है। एक समय था जब यह कला गायब सी हो गई थी, लेकिन लगभग आठ साल पहले शहर में यह कला फिर से जिंदा हुई है। सनतकदा ने किस्सागोई का आयोजन कराया था, जिसमें महमूद फारुखी, दानिश हुसैन, अंकित चड्ढा, फौजिया ने किस्सागोई की थी। उसके बाद से इसका क्रेज बढ़ता चला गया।

बच्चों को दे रहे शिक्षा

पिछले लगभग पांच सालों से किस्सागोई कर रहे राहुल अपनी इस कला से बच्चों को शिक्षा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वह अपनी संस्था स्वतंत्र तालीम के माध्यम से लखनऊ व आस-पास के इलाकों में जाकर बच्चों को कहानी सुनाते हैं और उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करते हैं। वह कहते हैं कि कहानी सुनाकर बच्चों को शिक्षित किया जा सकता है।

बच्चों को कहानी सुनाना अच्छा लगता है

बच्चों को अलग अंदाज में कहानी सुनाना दिव्य प्रकाश दुबे को काफी पसंद है। उन्होंने अपनी इस कला को स्टोरीबाज नाम भी दिया है। बच्चों को कहानी सुनाकर पुराने जमाने को याद करते हैं। वह बताते हैं कि बच्चों को कहानी बहुत पसंद होती है।


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