डायनासोर काल के इस पौधों का किया जा रहा संरक्षण, अब तक 65 प्रजातिया विकसित
एनबीआरआइ के अलावा देश में कहीं नहीं हैं इतनी प्रजातिया। बहुउपयोगी है पौधा, खाने से लेकर दवाओं तक आता है काम।
लखनऊ(महेंद्र पाडेय)। डायनासोर काल के पौधों का राजधानी में अभी तक संरक्षण किया जा रहा है। जानकर हैरत भले ही हो पर यह हकीकत है। इस पौधे को साइकस प्रजाति का बताया जा रहा है। खास बात यह है कि वैज्ञानिकों ने इसकी 65 प्रजातिया भी विकसित कर ली हैं। नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनबीआरआइ) ऐसा करने वाला भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया का पहला संस्थान है। साइकस को विश्व की सबसे पुरानी प्रजाति का पौधा माना जाता है। इसकी प्रजातिया डायनासोर (जुरासिक) काल से ही पृथ्वी पर मौजूद हैं, लेकिन पर्यावरण प्रदूषण और अन्य कारणों से अब यह विलुप्तप्राय होता जा रहा है। एनबीआरआइ के अनुसार, इसकी 13 प्रजातियों को भारत में विकसित करने में सफलता मिली है। हालाकि एनबीआरआइ में देश के अलावा अमेरिका, जापान आदि की भी प्रजातियों को संरक्षित कर लिया गया है। यहा कुल 65 प्रजातिया विकसित हो चुकी हैं।
विकसित हुईं प्रजातिया
एनबीआरआइ में 1970 के दशक में साइकस की महज 4-5 प्रजातिया ही होती थीं। वैज्ञानिकों ने प्रयोग जारी रखा और आज इसके संरक्षण में देश का अग्रणी संस्थान बन चुका है। संस्थान के एक वैज्ञानिक ने बताया कि यहा गत तीन वर्षो में साइकस की बीस प्रजातियों को डेवलप किया गया है। वहीं, देश में मणिपुर, असोम, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में इस पौधे की 13 प्रजातिया पाई जाती हैं। आध्र प्रदेश के तिरुपति पहाड़ी पर साइकस की बेडोमाई प्रजाति को संरक्षित किया गया है। क्या कहते हैं वैज्ञानिक?
एनबीआरआइ वैज्ञानिक डॉ. केजे सिंह ने बताया कि एनबीआरआइ देश का इकलौता संस्थान है, जहा साइकस की 65 प्रजातियों को संरक्षित किया गया है। यह बहुपयोगी पौधा है। इसकी और भी प्रजातियों को विकसित करने पर काम कर रहे हैं। .ऐसे होता है संवर्धन
साइकस के नर और मादा पौधों के बीच कुछ कीड़ों द्वारा प्राकृतिक रूप से संवर्धन होता है। संस्थान में यह कीड़े जलवायु परिवर्तन के कारण जीवित नहीं रह पाते, इसलिए इन पौधों के लिए जर्मप्लाज्म से इकट्ठा किए गए बीजों के अंकुरण और कृत्रिम परागकण से संवर्धन किया जाता है। इसके बाद बीज दो साल में अंकुरित होता है।
कहीं दवा तो कहीं बनता साग और पेठा
साइकस औषधीय गुणों वाला भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार, विभिन्न रोगों की दवाओं में भी इसका प्रयोग किया जाता है, जबकि पौधे के नए तने का मणिपुर आदि में साग बनाया जाता है। कहीं-कहीं इसका पेठा भी बनाते हैं। इसकी कुछ प्रजातिया मंडप, स्टेज आदि को सजाने में भी काम आती हैं। पौधे की एक पत्ती अमूमन दो साल बाद ही सूखती है।