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संजय की अंधेरी जिंदगी में अनुभव की रोशनी, छूते ही पहचान लेते हैं पांच से लेकर 2000 तक के नोट

द‍िव्‍यांग होने के बाद भी संजय अपनी जीविका और घर खर्च चलाने के लिए एक छोटी सी दुकान चलाते हैं। जिसमें टॉफी-बिस्कुट और पान मसाले रखते हैं। खास बात यह है कि अपने अनुभव से छूते ही पहचान जाते हैं कितने का नोट और सिक्का है।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Wed, 13 Jan 2021 11:34 AM (IST)Updated: Wed, 13 Jan 2021 11:34 AM (IST)
संजय की अंधेरी जिंदगी में अनुभव की रोशनी, छूते ही पहचान लेते हैं पांच से लेकर 2000 तक के नोट
जन्म से द‍िव्‍यांग होने के बाद भी एक छोटी सी दुकान चलाकर कर चला रहें अपनी जीविका।

लखनऊ, [सौरभ शुक्ला]। महाभारत के संजय के तो बारे में आपने खूब सुना, पढ़ा और टीवी सीरियल में भी उनका चरित्र देखा होगा। पर आज हम आपको बता रहे हैं राजधानी में हनुमान सेतु पुल के पास स्थित एक सब स्टेशन के पास छोटी सी दुकान चलाने वाले एक संजय के बारे में। संजय जन्म से ही नेत्रहीन हैं और बहुत गरीब परिवार से हैं। इनका स्कूल से कभी कोई नाता नहीं रहा और नहीं उन्होंने कभी कोई ब्रेन लिपि सीखी। मुफ्त में बैठकर उन्हें घर में बैठकर रोटी तोड़ना भी नहीं पसंद है।

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बहुत ही खुद्दार किस्म के हैं यह संजय। द‍िव्‍यांग होने के बाद भी इनके जज्बे को सलाम है। क्योंकि अपनी जीविका और घर खर्च चलाने के लिए यह संजय एक छोटी सी दुकान चलाते हैं। जिसमें टॉफी-बिस्कुट और पान मसाले रखते हैं। इनकी खास बात यह है कि ग्राहक अगर नेत्रहीन समझकर इन्हें बेवकूफ बनाने की कोशिश करे तो वह नाकाम होगा। संजय अनुभव से जीते हैं। अनुभव के कारण यह पांच से लेकर 2000 तक के नोट और सभी सिक्कों को स्पर्श करते ही पहचान जाते हैं कि यह कितने का नोट है। ग्राहकों के मांगने पर उनकी जरूर के अनुसार उन्हें सामान देते हैं नोट लेकर गुल्लक में रखते हैं। इसके बाद बचे हुए रुपये गुल्लक से निकाल कर ग्राहक को वापस भी करते हैं। इसके लिए उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं। संजय के परिवार में उनके बड़े भाई और भाभी हैं। संजय के पिता बेचेलाल की कई साल पहले मृत्यु हो गई थी। संजय ने शादी नहीं की है। वह अपने भाई और भाभी के साथ रहते हैं। अपने जीवन यापन के लिए दुकान चलाते हैं।

जीना इसी का नाम है

संजय थोड़ी सी अपंगता अथवा स्वस्थ शरीर होने के बाद भी जो लोग लाचारी का बहाना करके भीख मांगते और लोगों की दया के पात्र बने रहने की सोंचते हैं संजय ऐसे लोगों के लिए नजीर हैं। संजय का कहना है कि उन्हें संघर्षों से ही जीना अच्छा लगता है। उन्हें रत्त भर अफसोश नहीं है कि वह नेत्रहीन हैं। उनका कहना है कि यह सब तो परमपिता परमात्मा की देन है। कभी किसी पर बोझ नहीं बनना चाहिए। ईश्वर जो देता है उसे सहर्ष स्वीकार करके व्यक्ति को स्वाभिमान के साथ जीना चाहिए। जीना इसी का नाम है। 


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