रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद : मृग-मरीचिका ही रहा समझौते से समाधान का प्रयास
अमीर अली और रामशरणदास को फांसी दे इस प्रयास की कर दी गई थी भ्रूणहत्या मध्यस्थता पैनल का हश्र भी हताश करने वाला रहा।
अयोध्या, (रघुवरशरण)। रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद हल करने के लिए मध्यस्थता का नया राग पूर्व के अनुभवों की याद दिलाने वाला है। मध्यस्थता अथवा समझौते से मसले के हल का प्रयास समय-समय पर होता रहा है। इसकी शुरुआत 1857 में हुई, जब हिंंदू-मुस्लिम एकता सुनिश्चित करने के लिए मुस्लिमों ने रामजन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद का दावा छोड़ने की तैयारी की थी। यह पहल तत्कालीन ब्रिटिश हुक्मरानों को बहुत अखरी। उन्होंने मुहिम की अगुवाई कर रहे अमीरअली और रामशरणदास को विवादित स्थल के कुछ ही फासले पर स्थित इमली के पेड़ से लटका कर मौत के घाट उतार दिया।
करीब सवा सौ वर्ष बाद यदि राममंदिर का आग्रह जनांदोलन की शक्ल में पेश हुआ तो सुलह-समझौते के प्रयास भी नए सिरे से परवान चढ़े। कांची के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती करीब दो दशक पूर्व निर्णायक किरदार के तौर पर सामने आए। उन्होंने हिंंदूओं और मुस्लिमों को देश की दो आंखें बताकर सुखद माहौल बनाया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके।
इसके बाद अयोध्या जामा मस्जिद ट्रस्ट ने सुलह की मुहिम को आगे बढ़ाया और यह स्पष्ट किया कि मुस्लिमों का एक तबका बाबरी मस्जिद का दुराग्रही नहीं है। 2010 में हाईकोर्ट का निर्णय आने की बेला में फिर से सहमति से हल की कोशिशें हुईं। इसके केंद्र में हनुमानगढ़ी से जुड़े शीर्ष महंत ज्ञानदास एवं बाबरी मस्जिद के मुद्दई मो. हाशिम अंसारी थे। कुछ स्वार्थी लोगों ने मसले को हल नहीं होने दिया।
हुए थे दस हजार लोगों के हस्ताक्षर
सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति पलोक बसु ने समझौते के प्रपत्र पर दोनों समुदाय के 10 हजार से अधिक लोगों के हस्ताक्षर कराकर अपने प्रयास को प्रामाणिकता दी। मार्च 2017 में तत्कालीन सीजेआइ जेएस खेहर ने विवाद के हल के लिए आम सहमति का सुझाव तो दिया पर प्रयास इस वर्ष मार्च में हुआ। सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में गठित मध्यस्थता पैनल की पांच महीने की सुलह की कवायद भी मृगमरीचिका ही साबित हुई।