शाम का नाम, पूरा दिन बेगम अख्तर के नाम
विद्या शाह ने किस्से और गजलों से जिंदा कर दीं बेगम अख्तर की यादें, सर्द रात के साथ बढ़ती गई संवादी की गर्माहट, श्रोताओं ने खूब लुटाई दाद।
लखनऊ, जेएनएन। 'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...।' वो होगी बेगम अख्तर की किसी और से मोहब्बत, जिसने अंजाम में रोना दिया। काश! वह इस मोहब्बत का अंजाम देख लेतीं तो 'अंजाम' उनका रोम-रोम रोमांचित कर देता। वह देख पातीं कि कैसे उनसे मुहब्बत करने वाली विद्या शाह उन्हें न सिर्फ गायिकी की पारंपरिक तालीम में जी रही हैं, बल्कि उनकी जिंदगी के अफसाने भी सांस-सांस में संजोए हैं। दैनिक जागरण के संवादी के मंच पर प्रख्यात गायिका बेगम अख्तर के नाम एक शाम करने को बैठीं, लेकिन किस्से, कहानी, गजल, दादरा का ऐसा सिलसिला चला कि पूरा दिन ही उनके नाम हो गया।
शनिवार को संवादी का अंतिम सत्र था 'ऐ मोहब्बत : एक शाम बेगम अख्तर के नाम।' दिन भर विभिन्न विषयों पर चली गर्म बहस के साथ मौसम की गरमाहट भी जा चुकी थी। अब मौसम को सर्द होता जा रहा था, लेकिन बढ़ती जा रही थी अपनेपन की गर्माहट। यह गर्माहट थी दुनिया में गजल, दादरी, ठुमरी गायन के मशहूर रहीं लखनऊ की ही बेगम अख्तर के लिए। उनके संगीत और यादों का जिम्मा था बेगम अख्तर की प्रिय शिष्या शांति हीरानंद से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेने वाली मशहूर गायिका विद्या शाह पर। बेगम अख्तर की जिंदगी के अनछुए पहलुओं पर शुक्रवार के सत्र में भी चर्चा कर चुकीं विद्या ने यहां अपन बात इसी से शुरू की कि अख्तरी बाई से बेगम अख्तर बनने तक और उसके बाद तक की जिंदगी के कई पहलू हैं।
इसके बाद विद्या ने किस्सों को मीठे सुरों की कड़ी में पिरोते हुए बेगम अख्तर का सफरनामा शुरू किया। सबसे पहले गजल सुनाई-
'दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे...।'
कद्रदान इस गजल को गुनगुनाते हुए पूरी तरह महफिल से जुड़ चुके थे। फिर विद्या किस्सागोई पर लौटती हैं। बताया कि बेगम अख्तर का जन्म 1914 में फैजाबाद में हुआ। गया में एक उस्ताद से शुरुआती तालीम लेकर लखनऊ आ गईं। यहां उस्ताद अता मुहम्मद खां से संगीत सीखा। उनका रुझान उप शास्त्रीय संगीत की ओर था, जिसे उन्होंने खूब गाया। विद्या शाह को इस सीमित वक्त की मजबूर महफिल में बेगम अख्तर की जिंदगी के कई रंगों को परोसना था। लिहाजा, गजल गा चुकीं विद्या ने अब दादरा सुनाया। बोल थे-
'लागी बेरिया पिया के अवन की
हो गई देरिया पिया के अवन की...।'
श्रोताओं की दीर्घा से फरमाइश उठती है और तुरंत ही एक और दादरा महफिल में गूंजता है-
'जिया मोरा लहराए है, छा रही काली घटा...।'
बेगम अख्तर की जिंदगी के पहलुओं को साथ लेकर चल रहीं विद्या बताती हैं कि 1920 से 1930 के दौर में गानों की रिकॉर्डिंग शुरू हो चुकी थी। बेगम अख्तर भी गायिका रह चुकीं अपनी मां के साथ रिकॉर्डिंग के लिए कोलकाता पहुंच जाती हैं। वहां मशीन देखकर घबरा भी जाती हैं। मगर, वहां से वह काफी ख्याति पाती हैं। उसके बाद बेगम अख्तर ने फिल्मों में गाना भी शुरू कर दिया था। किस्से को संगीत की महफिल से जोडऩे के लिए यहां विद्या बेगम अख्तर द्वारा गाया गया रोटी फिल्म का गाना सुनाती हैं। बोल थे-
'उलझ गए नैनवा छूटे नहीं छुड़ाए
बांका जोगन तिरछी चितवन
बाण पे बाण चलाए...।'
गीत का थोड़ा सिलसिला चलने के बाद विद्या शाह फिर बेगम के जीवन पर लौटती हैं। बताती हैं कि इतना गंभीर गायन का हुनर रखने वाली बेगम अख्तर स्वभाव से बहुत मजाकिया थीं। वह उनका नवाब रामपुरी से जुड़ा किस्सा सुनाती हैं। फिर कुछ पंक्तियां नवाब रामपुरी को ही समर्पित करते हुए सुनाती हैं-
'हमार नहीं मानो राजाजी
सौतन के लंबे-लंबे बाल राजाजी
उलझ मत जाना राजाजी...।'
समा बंधता तो विद्या जारी रखती हैं-
'हमरी अटरिया पे आवो संवरिया...।'
...और यूं बेगम अख्तर हो गई अख्तरी बाई
बेगम अख्तर का स्वभाव भले ही मजाकिया हो, लेकिन उनकी जिंदगी में दर्द भी था। विद्या शाह बताती हैं कि बेगम को गम था कि उनके गाने तो खूब सराहे जाते हैं, लेकिन सामाजिक रूप से उन्हें उस सम्मान के साथ नहीं अपनाया जाता। इसी बीच उनका निकाह लखनऊ के जाने-माने बैरिस्टर मुख्तार हैदर अब्बासी से हो जाता है। तब एक मौलवी अब्बासी को खत लिखकर कहते हैं कि अख्तरी बाई से निकाह कर लिया। क्या यही है आपकी इज्जत। अब्बासी जवाब देते हैं अब सब अख्तरी के नाम।
इसके साथ गजल गूंजती है-
'उज्र आने में भी है और मुलाकातें नहीं
उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं...।'
यहां से अख्तरी बाई की जिंदगी की अजीब दास्तां सुनने को मिलती है। विद्या शाह बताती हैं कि अब्बासी मुहब्बत तो खूब करते थे, लेकिन चाहते थे कि अख्तरी लखनऊ की महफिलों में कम गाएं। तब अख्तरी अपने कदम पीछे खींच तो लेती हैं, लेकिन धीरे-धीरे डिप्रेशन में जाती हैं। तब एक हकीम इलाज बताते हैं कि यह गाने से ही ठीक होंगी। उसके बाद वह गाना शुरू करती हैं। ऑल इंडिया रेडियो पर उनके गाने की रिकॉर्डिंग होती है। यहीं उन्हें नाम दिया जाता है 'बेगम अख्तर।' वह रिकॉर्ड हुआ दादरा था-
'कोयलिया मत कर पुकार
गरजवा लागे कटार...।'
बेगम अख्तर फिर गीत-संगीत की दुनिया में रच-बस जाती हैं। उस दौर में उनकी तमाम शिष्याएं बनती हैं। उन्हीं में से एक थीं शांति हीरानंद, जिनसे विद्या ने संगीत की तालीम ली।
अब विद्या तो सत्र के समापन की भूमिका बनाने लगीं, लेकिन श्रोताओं की ओर से फरमाइश उठी तो उन्होंने सुनाया-
'दिल ही तो है ना संग-ओ-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों
रोएंगे हम हजार बार, कोई हमें सताए क्यों...।'
फिर एक गजल-
'उलटी हो गईं सब तदबीरें
कुछ न दवा ने काम किया...।'
आखिरकार स्वागत करती तालियों के साथ गुजारिश हुई तो विद्या ने सुनाया-
'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पर रोना आया...।'
बेगम अख्तर की याद से सजी इस महफिल का अंजाम वाकई श्रोताओं को प्यासा छोड़ता है। वह तो जमे और रमे रह जाना चाहते हैं और फिर बेगम अख्तर को याद करते, गुनगुनाते, विद्या शाह को दाद देते विदा हो जाते हैं। यह रंग जमाने में हारमोनियम पर उस्ताद बदलू खान, सारंगी पर उस्तान गुलाम अली और तबले पर प्रकाश ठाकुर ने संगत की।